रविवार, 4 अप्रैल 2010
क्या परशुराम क्षत्रिय विरोधी थे ???
बताया जाता है कि हमारे जौनपुर से परशुराम जी का नाता रहा है ,इन्ही के पिता जी ऋषि यमदग्नि के नाम पर ही जौनपुर कभी यमदाग्निपुरम से होते हुए जौनपुर हो गया. आज भी इनकी माता जी का मंदिर यहाँ विराजमान है.जौनपुर के स्थानीय निवासी और सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी में पुराण -इतिहास विभाग के पूर्व आचार्य डॉ आशुतोष उपाध्याय नें हाल ही में यह पुस्तक लिखी है, जिसमें परशुराम जी से जुड़े विविध पहलुओं पर व्यापक प्रकाश डाला गया है .एक साथ परशुराम जी पर इतनी जानकारी संभवतः ही किसी पुस्तक में एक स्थान पर हो.इस पुस्तक के प्रणयन के समय विद्वान लेखक की दृष्टी ऐतिहासिक ,पौराणिक और सांस्कृतिक पक्षों पर विशेष केन्द्रित रही है और अपनें मत के समर्थन में आपनें कई एक पुराणों और श्री वाल्मिकी कृत रामायण आदि का भी सहारा लिया है.भाषा सरल और शैली प्रवाहपूर्ण है इस लिए यह कृति संग्रहणीय बन गयी है.
आज तक सर्व -विदित व्याख्या यह रही है कि परशुराम जी क्षत्रिय विरोधी थे ,लेकिन इस ग्रन्थ के लेखक ने संदर्भों के आधार पर इससे असहमति जताई है .नीचे चटका लगा कर आप स्वयं पढ़ सकते है -
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आपने इस पोस्ट के माध्यम से एक ऐतिहासिक भ्रम पर से पर्दा उठाने का महती कार्य किया है. बहुत शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
भ्रम मिटा पढ्कर . नही तो क्षत्रिय विरादरी का होने के कारण परशुराम के लिये ग्रन्थि रख्ता था मन मे
जवाब देंहटाएंसही कहा. भगवन परशुराम केवल अत्याचारी और निरंकुश शासकों के विरोधी थे.
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण जानकारी पढ़ने को मिली ।
जवाब देंहटाएंमेरी जानकारी तो बहुत अल्प है ..आपने बहुत बढ़िया बात बताया..पौराणिक इतिहास के बारे में जान कर बहुत अच्छा लगा...ऐसे ज्ञान कभी कभार ही मिल पाते है...धन्यवाद मनोज जी
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार जी।
जवाब देंहटाएंअभी 'पुरुषों के दिमाग अधिक सेक्सग्रस्त' वाले शोध पर प्रतिलेख को सोच ही रहा था कि आप ने यह टपका दिया :) बहुत बवाल हैं।
जवाब देंहटाएंप्राचीन भारत की ऋषि राजन्य परम्परा ब्राह्मण क्षत्रिय के बीच वर्चस्व हेतु संघर्ष की परम्परा रही है। रक्त सम्बन्ध भी होते रहे।
आर्यों की श्रेष्ठ परम्परा के वाहक विश्वामित्र और परशुराम मातृपक्ष से रक्त सम्बन्धी हैं। एक क्षत्रिय तो दूसरा ब्राह्मण - एक क्षत्रिय ने ऋचाएँ गढ़ीं तो दूसरे ब्राह्मण ने शस्त्र उठाए। समस्त वैदिक वांगमय के सामने विश्वामित्र गायत्री मंत्र सी बड़ी लकीर खींचते हैं तो परशुराम 21 बार क्षत्रियों का संहार करते हैं। विश्वामित्र समांतर सृष्टि की रचना करते दिखाई देते हैं तो ब्राह्मण वशिष्ठ ब्रह्मत्त्व के उनके दावे को नकारने की हर कोशिश करते हैं।
उत्तर वैदिक काल में वैदिक कर्मकांड के समांतर क्षत्रिय जनक का दरबार औपनिषदिक विमर्श का केन्द्र बनता है तो प्रजा की रक्षा के क्षत्रिय कर्म को चरम अनार्यता की सीमा तक ले जाता है ब्राह्मण रावण - वयं रक्षाम:। भरतों की उपशाखा यदु का क्षत्रिय कृष्ण वैदिक इन्द्र की पूजा के विरुद्ध गोवर्धन पूजा के द्वारा लोकजागरण करता है और महाभारत में गीता उपदेश के द्वारा ब्राह्मण त्रयी परम्परा पर जैसे ताला लगा देता है। धीवर माता ब्राह्मण पिता की संतान कृष्ण द्वैपायन कृष्ण को ईश्वर बना देता है।
ब्राह्मण पोषित वैदिक हिंसा के विरुद्ध क्षत्रिय महावीर और सिद्धार्थ गौतम सम्पूर्ण वैकल्पिक जीवन दर्शन ले कर आते हैं।
मजे की बात यह है कि प्राचीन भारत के सभी प्रमुख राजवंश अब्राह्मण और अक्षत्रिय रहे हैं:
(1) नन्द वंश - शूद्र
(2) मौर्य वंश - अज्ञात कुलशील (चाणक्य चन्द्रगुप्त को 'वृषल - कुलहीन' कहता है)
(3) गुप्त वंश - वैश्य
(4) वर्धन वंश - वैश्य
यहाँ तक कि राजपूतों के विभिन्न वंश भी आक्रमणकारी आर्य वंशों जैसे शक, हूण, गुर्जर को संस्कारित कर क्षत्रिय जाति में समाहित करने पर बने। हाँ, इनमें प्राचीन क्षत्रिय रक्त का भी अंश है। ... यह सब इसलिए कहा कि लोग भारतीय समाज के प्राचीन लचीलेपन को समझें और जाति के नाम पर लड़ना बन्द करें। कटु यथार्थ ही है कि आज भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण और राजपूतों में वर्चस्व की 'महीन लड़ाई' जारी है। यादव, कुर्मी, कुशवाहा आदि के मैदान में कूदने से जटिलताएँ और बढ़ी हैं। लोग खुलेआम और छिपे दोनो तरीकों से अपनी अपनी जाति को प्रमोट करते दिखाई देते हैं। इन सबसे अहित हुआ है तो विकास का। मुद्दों के केन्द्र ही वाहियात बातें हैं। आश्चर्यजनक नहीं है कि पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार देश के सर्वाधिक पिछड़े क्षेत्रों में आते हैं।
राजपूत को विदेशी जातियों से संस्कारित कर राजपूत नही बनाया है। उन्हें जैन एंव बौद्ध धर्म से वापस वैदिक धर्म मे लाने के लिए आबू पर्वत पर यज्ञ किया, महात्मा बुध का वंश शाक्य वंश था जो सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। कोशल नरेश प्रसेनजित के पुत्र ने शाक्य क्षत्रियो पर हमला किया उसके बाद इनकी एक शाखा पिप्लिवन में जाकर रहने लगी। वहां मोर पक्षी की अधिकता के कारण मोरिय कहलाने लगी।चन्द्रगुप्त मोरिय के पिता पिप्लिवंन के सरदार थे जो मगध के शूद्र राजा नन्द के हमले में मारे गये। ब्राह्मण चाणक्य का नन्द राजा ने अपमान किया जिसके बाद चाणक्य ने देश को शूद्र राजा के चंगुल से मुक्ति दिलाने का संकल्प लिया। एक दिन चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को देखा तो उसके भीतर छिपी प्रतिभा को पहचान गया। उसने च्न्द्र्गुप्र के वंश का पता कर उसकी माँ से शिक्षा देने के लिए चन्द्रगुप्त को अपने साथ लिया। फिर वो उसे तक्षिला ले गया जहाँ चन्द्रगुप्त को शिक्षा दी गयी। उसी समय यूनानी राजा सिकन्दर ने भारत पर हमला किया।
हटाएंचन्द्रगुप्त और चानक्य ने पर्वतीय राजा पर्वतक से मिलकर नन्द राजा पर हमला कर उसे मारकर देश को शूद्रो के चंगुल से मुक्ति दिलाई। साथ ही साथ यूनानी सेना को भी मार भगाया। उसके बाद बिन्दुसार और अशोक राजा हुए। अशोक बौध बन गया। जिसके कारण ब्राह्मणों ने उसे शूद्र घोषित कर दिया। अशोक के तीन पुत्र हुए कुनाल,सम्प्रति,जालोंक।
जलोक को कश्मीर मिला,कुनाल को मगध और पूर्वी भारत,सम्प्रति को पश्चिमी और मध्य भारत यानि आज का गुजरात राजस्थान मध्य प्रदेश आदि मिला। सम्प्रति जैन बन गया उसके बनाये मन्दिर आज भी राजस्थान में मिलते हैं, सम्प्रति के के वंशज आज के मेवाड़ इलाके में राज करते रहे। चित्रांगद मौर्य ने चित्रकूट किला बनवाया जिसे आज चित्तौड कहा जाता है। बाद में ये मौर्य वापस वैदिक धर्म को मानने लगे थे पर पूर्वी भारत के मौर्य बहुत बाद तक बौध बने रहे और कुछ स्थाई शूद्र बन गये पर आज भी पूर्वी इलाको मे मौर्य वंश के शुद्ध राजपूत है । किन्तु पश्चिम भारत के मौर्य क्षत्रिय राजपूत माने गये। चित्तौड पर इनके राजाओ के नाम महेश्वर भीम भोज धवल और मान थे। गहलौत वंशी बाप्पा रावल के मामा चित्तौड के मान मौर्य थे, बाप्पा रावल ने मान मौर्य से चित्तौड का किला जीत लिया और उसे अपनी राजधानी बनाया। इसके बाद मौर्यों की एक शाख दक्षिण भारत चली गयी और मराठा राजपूतो में मिल गयी जिन्हें आज मोरे मराठा कहा जाता है वहां इनके कई राज्य थे। आज भी मराठो में मोरे वंश उच्च कुल माना जाता है, एक शाखा उड़ीसा चली गयी ।वहां के राजा रंक उदावाराह के प्राचीन लेख में उन्होंने सातवी सदी में चित्तौड या चित्रकूट से आना लिखा है। एक शाखा ने हिमाचल प्रदेश में भरमोर की स्थापना की जो आज चम्बा राजघराना है। कुछ मोरी या मौर्य वंशी राजपूत आज भी मथुरा निमाड़ मालवा उज्जैन में मिलते हैं। इनका गोत्र गौतम है। बुद्ध का गौत्र भी गौतम था जो इस बात का प्रमाण है कि मौर्य और गौतम वंश एक ही वंश की दो शाखाएँ हैं, भाटों ने मोरी वंश को परमारो की शाखा लिखा ह। हो सकता है परमार राजपूत भी प्राचीन मौर्य वंश से सम्बंधित हो। कर्नल जेम्स टॉड ने भी चन्द्रगुप्त मौर्य को परमार वंश से लिखा है।
चन्द्रगुप्त के समय के सभी जैन और बौध धर्म मौर्यों को शुद्ध सूर्यवंशी क्षत्रिय प्रमाणित करते है ।चित्तौड के मौर्य राजपूतो को पांचवी सदी में सूर्यवंशी ही माना जाता था किन्तु ब्राह्मणों ने बौध धर्म ग्रहण के कारण इन्हें शूद्र घोषित कर दिया, किन्तु पश्चिम भारत के मौर्य पुन वैदिक धर्म में वापस आ जाने से क्षत्रिय राजपूत ही कहलाए
2 गुप्त वंश ➡ रोमिला थापर, राम शरण शर्मा आदि गुप्तो को वैश्य मानते है । परंतु यह सही प्रतीत नही होता है। कुछ विद्वान इन्हें ब्राह्मण मानते है,लेकिन चन्द्रगुप्त द्वित्तीय की पुत्री प्रभावती का पूना ताम्रपत्र में किया "परमभागवतों महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्तचस्य दुहिता धारणसगोत्रा श्री प्रभावती गुप्ता"।। क्योकि यह गोत्र उसका पिता का था,पुराणों में ब्राह्मणों के 24 गोत्र बताए गए है जिसमे 12 वा गोत्र धारण बताया है। इतिहासकर दशरथ शर्मा का मानना है कि जो संभवत किसी पुरोहित का गोत्र हो और उसे चंद्रगुप्त ने स्वीकार कर लिया हो,क्योकि ऐसा कई क्षत्रियो ने किया है।ओर मनुस्मृति में भी बताया गया है, कि पुरोहित का गोत्र क्षत्रिय धारण कर सकते है, लेकिन ब्राह्मण नही। इस कारण गुप्तो का ब्राह्मण होना भी तर्क सही प्रतीत नही होता है। अधिकतर विद्वानों ने गुप्तो को क्षत्रिय ही माना माना है क्योंकि पंचोभ (बिहार) से प्राप्त अभिलेख में गुप्तवंश अपने आपको को क्षत्रिय तथा पांडव अर्जुन का वंशज मानते है। जावा से प्राप्त तंत्रिकामन्दक नाम ग्रन्थ में ऐश्वर्यपाल का वर्णन है, जो अपने आपको समुन्द्रगुप्त का वंशज और क्षत्रिय मानता है। सिरपुर(छत्तीसगढ़) के लेख में चन्द्रगुप्त को क्षत्रिय कहा गया है।
हटाएं@गिरिजेश भाई साहेब ,
जवाब देंहटाएं(1) नन्द वंश - शूद्र
(2) मौर्य वंश - अज्ञात कुलशील (चाणक्य चन्द्रगुप्त को 'वृषल - कुलहीन' कहता है)
(3) गुप्त वंश - वैश्य
(4) वर्धन वंश - वैश्य
अ-नन्द वंश को छोड़ सभी की जाती को लेकर अभी भी विवाद है.
ब -गुप्त वैश्य थे यह केवल और केवल रोमिला थापर जी मानती हैं और कोई गुप्तों को वैश्य नहीं मानता .
लगता है रोमिला थापर को अभी विष्णुगुप्त "चाणक्य" की जानकारी नहीं है। हैप्पी अक्षय तृतीया 2013!
हटाएंजाती-जाति
जवाब देंहटाएं@ '' ........ आज भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण और राजपूतों में वर्चस्व की 'महीन लड़ाई' जारी है। यादव, कुर्मी,
जवाब देंहटाएंकुशवाहा आदि के मैदान में कूदने से जटिलताएँ और बढ़ी हैं। लोग खुलेआम और छिपे दोनो तरीकों से अपनी अपनी
जाति को प्रमोट करते दिखाई देते हैं। इन सबसे अहित हुआ है तो विकास का। मुद्दों के केन्द्र ही वाहियात बातें हैं।
आश्चर्यजनक नहीं है कि पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार देश के सर्वाधिक पिछड़े क्षेत्रों में आते हैं।''
------------------- फिलहाल गिरिजेश जी की इस बात से सहमत हूँ .... इनकी पूर्वोक्त बात को नहीं मान रहा हूँ
एकतरफा .... फिर भी हो-हुज्जे नहीं कर रहा हूँ क्योंकि अभी अन्यत्र व्यस्तता अपेक्षित शोध नहीं करने देगी और
बिना शोध के मैदान में कूदना नहीं चाहता .... फिर कभी बकूंगा ....
पोस्ट के लिए आभार !
विवाद अवश्य हैं - रहेंगे भी क्यों कि हजारो साल पुरानी बाते हैं लेकिन अधिकांश इतिहासकार इन पर सहमत हैं।
जवाब देंहटाएं.. उपाध्याय जी खाई को पाटने की बात कर रहे हैं। मैं भी उस खाई को पहचानने की कोशिश कर रहा हूँ जो समूचे पूरब को रसातल में डाले हुए है :)वह खाई है - जातिगत पूर्वग्रह और विद्वेष ।
हमेशा की तरह कमाल ! मनोज भइया आप के विषयों का चुनाव ही अनूठा नहीं होता वरन गूढता को सरलता में बदलने की कला भी कमाल होती है! सही कहा है-
जवाब देंहटाएंबुलंदियों पर पहुचना कोई कमाल नहीं,
बुलन्दियो पर ठरना कमाल होता है!
हमेशा की तरह कमाल ! मनोज भइया आप के विषयों का चुनाव ही अनूठा नहीं होता वरन गूढता को सरलता में बदलने की कला भी कमाल होती है! सही कहा है-
जवाब देंहटाएंबुलंदियों पर पहुचना कोई कमाल नहीं,
बुलन्दियो पर ठरना कमाल होता है!
गिरिजेश की टिप्पणी महत्वपूर्ण है -केरल और गोआ में परशुराम का प्रभुत्व अधिक दिखता है -राम तो धुर उत्तर के हैं -राम के बढ़ते प्रभुत्व के आगे परशुराम श्रीहीन होते हैं -राम क्या थे ? क्षत्री ही न ? और जनक ? वे भी क्षत्रिय !
जवाब देंहटाएंवशिष्ट से विश्वामित्र का घोर युद्ध !
धिग बलम क्षत्रिय बलम ब्रह्म तेजो बलम बलम
एकेन ब्रह्म दंडेंन सर्वशस्त्राणि हतानि में ...
फिर पासा पलटता है ....परसुधारी धनुर्धारी से पराजित होते हैं ...
सब बिखरी कड़ियाँ हैं ....गिरिजेश .अमरेन्द्र सब सही हैं -यह तो तुम्हारे कार्यक्षेत्र काविषय है ..
इसके नीर क्षीर मंथन की जिम्मेदारी तुम पर अधिक है
जवाब देंहटाएंरोचक बातें चल रही है।
जवाब देंहटाएंबढिया।
bahut badiya.mere man me abhi anwar jamal ke taja lekh ko lekar thda rosh hai is liye khul kar apani bhawanaye prakat nahi kar paa raha , kam shabdo me hi apani baat khatm karta hun.
जवाब देंहटाएंहमारा कुछ ज्ञानवर्धन हुआ और कुछ रिविजन।
जवाब देंहटाएंशब्दों के संकुचित अर्थ लगाने के क्रम में अर्थ का अनर्थ तो होता ही है .. पर सत्य क्या है , इसे सामने लाया जाना चाहिए !!
जवाब देंहटाएंपुस्तक यक़ीनन बेहद रोचक होगी.
जवाब देंहटाएं****Is पोस्ट se ही नहीं बल्कि इस एक विषय पर जो चर्चा हुई उससे भी ज्ञानवर्धन हुआ.
गिरिजेश राव जी की बातों में दम है। प्राचीन भारत में सामाजिक लचीलापन अधिक था। परवर्ती काल में जातिगत कट्टरताएं बढ़ी ही हैं। यह अलग बात है कि अपने को प्रगतिशील कहने-समझनेवाले लोग प्राचीन भारतीय समाज की खूबियों को उजागर करना उचित नहीं समझते।
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट और गिरजेश जी की टिप्पणी ने महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर प्रकाश डाला है।
जवाब देंहटाएंमैं इतिहास के कमजोर विद्यार्थी की तरह समझने का प्रयास कर रहा हूँ।
ek bahut hijankari di hai aapne,aaj tak is yatharth se parichit nahi thi.dhanyavad------
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक एवं रोचक जानकारी युक्त बेहतरीन प्रस्तुति, आभार ।
जवाब देंहटाएंvery good. we do hope more information will come regarding bhagwan parshuram ji in your blog.
जवाब देंहटाएंhttp://parshuram27.blogspot.com/2009/06/gali.html
अच्छी जानकारी मिली आपकी पोस्ट और उस पर आये विचारों से.
जवाब देंहटाएंइस विषय पर ज्ञानी पुरुषों के विचार पढ़ रही हूँ.......!!
जवाब देंहटाएंसम्भव है!
जवाब देंहटाएंलेकिन परशुराम का चरित्र बेहद असंतुलित है। माता के प्रति अपरिमित श्रद्धा भाव, पिता के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रतिशोध की चरम भावना से भरे हुए हैं। जो आदमी इतना क्रोधी हो, हिंस्र हो, उसे ईश्वर का, विष्णु का अवतार मानने में हिचक होती है। लेकिन मानने के अलावा चारा नहीं है; बुद्ध और महावीर की अहिंसा के पूर्ववर्ती हैं वे। और श्रमणों, साधको की परम्परा में भी नहीं हैं।
रोचक लगी यह जानकारी शुक्रिया
जवाब देंहटाएंहमने तो ऐसा कभी नहीं माना ।
जवाब देंहटाएंअब आपको पढ़कर तो कोई भी संशय नहीं रहा ।
आभार।
बहुत काम की जानकारी दी आप ने, मुझे तो वेसे भी इस बारे ज्यादा ग्याण नही, आप का धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसर, आपने बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी दी परशुराम जी के बारे में .मुझे इतना कुछ पता नहीं था इस विषय पे.ऐसी बातें जानने को कम ही मिल पाती है.
जवाब देंहटाएंयह तो बड़ा कठिन सवाल है...
जवाब देंहटाएं_________________________
'पाखी की दुनिया' में जरुर देखें-'पाखी की हैवलॉक द्वीप यात्रा' और हाँ आपके कमेंट के बिना तो मेरी यात्रा अधूरी ही कही जाएगी !!
पोस्ट और टिप्पणियाँ - दोनों समझ बढ़ाने, परिष्कृत करने में सहायक हो रही हैं ! इतिहास तो हमें भी छकाता है खूब !
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया, महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक जानकारी प्राप्त हुई आपके पोस्ट के दौरान! धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंयमदाग्निपुरम के बारे में कुछ पता ही नहीं था। इधर क्षेत्र में भी ऐसी कथा प्रचलित है। इन्दौर के पास महू सैन्य छावनी से कुछ आगे विंध्याचल की श्रृंखला में एक चोटी का नाम जानापाव है। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार इसे भी महर्षि यमदग्नि के आश्रम का स्थान माना जाता है। यहाँ पर उनका मंदिर भी है। य को ज बोले जाने के कारण कालांतर में संभवत: यह जानापाव हो गया। यहीं पर एक कुंड है जो चम्बल नदी का उद्गम है। कथाओं के अनुसार प्राचीन माहिष्मती के राजा कार्तवीर्य सहस्रार्जुन ने आश्रम से बलपूर्वक कपिला गाय का हरण किया था और यमदग्नि की हत्या कर दी थी। तब भगवान परशुराम ने क्षत्रियों के विरुद्ध शस्त्र उठा लिए थे। यह माहिष्मती नगरी अब महेश्वर के नाम से जानी जाती है और होल्कर वंश की देवी स्वरूपा शासिका माता अहिल्या की राजधानी भी रही है। बाद में होल्कर शासक इन्दौर से शासन चलाने लगे थे।
जवाब देंहटाएंरोचक पोस्ट और टिप्पणियां! अभय तिवारी की बात से सहमति!
जवाब देंहटाएंkya parshuram vatsa gotra ke the manoj ji.......
जवाब देंहटाएंGhazipur Zile ke Zamania tahsil me bhi Jamdagni ka Aashram hai,wahi Harpur me Parashuram ka prachin Mandir hai
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