बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

गंवई शादियों में आइटम और आउटिंग

गंवई शादी के बारे में अपने सतीश भाई तो लिख ही चुके हैं ,आज मेरा भी मन हो चला है कि इस विषय पर एक पोस्ट ठेल ही दूँ.
मई-जून - जुलाई में शादियों की बात-पुरानी हुई अब तो ठंड के महीनों में केवल खरमास को छोड़ रोज शादियाँ हो रही हैं-लगता है अभी लिंग अनुपात यथार्थ में परिलक्षित नहीं है-वर्ना शादी के लिए लडकियाँ ढूढ़ते रह जायेंगे. इन शादियों वाले दिनों में गांव और शहर में शादियों के चलते एक तरफ कान फोडू संगीत तो दूसरी तरफ यातायात जाम के चलते लोग त्रस्त हो जाते हैं ,शहर की शादियों में तो गनीमत है कि एकाध घंटें में आप को रात्रिभोज के साथ फुरसत मिल जायेगी लेकिन गांव जाने वाली अधिकांश शादियों में एलीट वर्ग झेल जाता है .अगर आपके पास अपना निजी वाहन नहीं है तो फिर आप रात्रि जागरण करें- गंवई बकवास सुनें या विवाह मंडप में बैठ कर महिलाओं की गालियाँ सुनें क्योंकि आपके लिए अलग से वाहन की व्यवस्था नहीं है. यह अलग बात है कि सुबह की जलेबी-छोला-भटूरा और फिर कन्या पक्ष की तरफ से मिलनें वाले नोट की विदाई के चक्कर में भी अधिकांश लोग सुबह से पहले टस-मस नहीं होते।
अभी पिछले ही दिनों एक सज्जन जो कभी भी गांव की शादी में शिरकत नहीं कर पाए थे ,महानगर से गाँव की शादी में भाग लेने आये -अति उत्साह में थे.रात में बारात में जल्दी आइटम
(मिठाई-चाट-भोजन) लेने के चक्कर में सूनसान रास्ते में नशे में धुत ड्राइवर सड़क के किनारे वाहन समेत एक अर्ध भरे तालाब में जा घुसा,जान बचाने की फिक्र में कीचड़ में लत-पथ बेचारे किसी तरह बाहर निकले तो पास के कुछ मनबढ़ लडकों नें चोर-चोर कह कर उनकी पिटाई कर दी -मोबाईल नेटवर्क बाधित होने से हम सब से मदद भी नहीं मांग पाए-बारात का स्थल काफी दूर था .हम लोग भोजन करते समय तक उनका इन्तजार करते रहे,पता चला की अभी वे नहीं आये है.हम लोंगों के जाने के बाद देर रात बेचारे बन पहुंचे थे कि बारातियों और घरातियों में आर्केस्ट्रा में नाच (-मुन्नी बदनाम ) को लेकर मार पीट हो गयी -खुराफाती तो भाग लिए पुलिस आने पर ,यही बेचारे पकडे गये फिर पुलिस का चक्कर-थाने में बैठा दिया गया .सुबह तक धुर गंवई शादी में भाग लेने का चस्का सदा सर्वदा के लिए उतर चुका था. गांव में कुछ भाई लोग कई चीजों को लेकर काफी उतावले रहते हैं जैसे उनसे कुछ छूट जाये .आइटम एवं आउटिंग के चक्कर में जल्दी लगी रहती है -रास्ते भर ड्राइवर से जल्दी चलो-जल्दी चलो की रट लगाये रहते है ,इस चक्कर में अक्सर गाडी कहीं न कहीं खराब होती है या फिर दुर्घटनाग्रस्त .
अब पिछले कई सालों से एक शौक और गांवों में लहलहा रहा है वह है असलहों से द्वारपूजा के समय होने वाली फायरिंग.प्रशासन द्वारा कितनी भी चेतावनी दी जाय कोई फरक नहीं .वैध-अवैध असलहों का जखीरा खूब दीखता है इन गंवई शादियों में .लोग बाग़ इसे पुरुषों के श्रृंगार के रूप में इसे परिभाषित भी बखूबी करते हैं.रोज कोई न कोई हादसा हो रहा है लेकिन होने वाली घटनाओं से कोई सबक नहीं ले रहा है.
कुछ लोग अनायास ही लड़की वाले के यहाँ इस फ़िराक में पहुंच जाते हैं कि क्या कुछ खाने -पीने को बन रहा है,देर क्यों हो रही है,किसी से परिचय कर लिया जाय ताकि खाने-पीने में आजादी रहे.बारात पहुंचते ही पहला धावा बिस्तर होता है ,बिस्तर पाने पर ऐसा मचलते है जैसे उस पर उनका जनम-जनम का आधिपत्य रहा हो -क्या मजाल कि वे किसी के लिए बिस्तर खाली कर दें.बिस्तर न पाने वाले लोग इस ताक में रहते हैं कि कभी न कभी लघुशंका-दीर्घशंका के समय या फिर भोजन करने जाते समय तो बिस्तर खाली होगा ही,इधर बिस्तर खाली हुआ नहीं कि दूसरी टीम का उस पर कब्जा.आपनें आपत्ति जताया तो टका सा जबाब हाज़िर है त का एकर बैनामा कराए हैं का .फिर जो दबंग पड़ा बिस्तर उसी का. अब गांव में भी शादियों के सुंदर सलोने गाने तो बंद हो चुके है अब शहर हो या गांव अजब -गजब गानों से माहौल प्रदूषित सा हो चला है.शहरों में तो उतना बुरा शायद नहीं लगता लेकिन गांव के मेड़ों पर डीजे पर बज रहे इन गानों से अपनें बड़े बुजुर्गों के बीच सर छुपाना कठिन होता है.विवाह मंडप में भी अब पुरानी वाली अलंकारिक गालियाँ नहीं सुनाई पडती .अब फ़िल्मी गानों की तर्ज़ पर सस्ते स्तर के वैवाहिक गीतों को अपनी नई पीढी गा रही है .यदा-कदा जब पुराने गाने मंडपों में सुनाई पड़ जाते हैं तो कौतूहल होता है साथ में मन ही मन धन्यवाद देता हूँ कि अपनी संस्कृति को वहाँ अभी भी जीवित रखा गया है.

30 टिप्‍पणियां:

  1. सच कहा आपने अब तो हर आयोजन पर संगीत के नाम पर फ़िल्मी गाने ही बजा करते हैं और वही गाय जाते हैं.फिर कभी कभार पुराने परंपरागत गीत सुनकर वाकई सुकून मिलता है
    सुन्दर पोस्ट.

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  2. Gaanon kee baat to ekdam sahee! Dimaag pak jata hai bhadde gane sunte,sunte!Aur wahanon ka tez chalwana to behad khatarnaaq!

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  3. बहुत सुंदर चित्र खींचा आप ने गंवई शादी का, ओर इस शोरशरावे( डी जॆ) को तो पुरी तरह से बंद कर देना चाहिये, क्योकि इस मे शोर ओर बतमीजी के सिवा कुछ नही होता,अब तो पुराने समय की गंवई शादियां भी एक याद गार बन गई,बहुत अच्छी प्रस्तुति।

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  4. वाह भईया वाह मजा आई ग, हमके भी बहुत दिंन होई गवाबा बारात करे । पोस्ट पढिके बहुत मजा आयेस ।

    लौहांगना ब्लॉगर का राग-विलाप

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  5. बेचारे महानगरी के शहरी बाबू की महादशा ही उन्हें वहाँ खींच लाई थी।
    एक बार हमें भी रात में आर्केस्ट्रा देख कर मस्त होने के बाद जब घर की सुध आई तो देखा मोटरसाइकिल पंचर ! रात के एक बजे कहाँ बनती ! संगी साथी देखते ही देखते आगे बढ़ गये। घर लौटना भी जरूरी था। मरता क्या करता ! उसी पंक्चर मोटरसाइकिल को चलाते हुए 20 किमी का सफर तय किया। दूसरे दिन ट्यूब बदलवाना पड़ा।
    ....गंवई शादी का मजा ही कुछ और है।

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  6. बहुत अफ़सोस होता है यह देखकर ..... रीति रिवाज़, नेगचार सब छोड़कर बस यह फ़िल्मी धूम धड़ाका रह गया है..... आपकी बातों से पूरी तरह सहमत ...

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  7. जो भी हो सज्जन जी के साथ तो बहुत बुरा हुआ भाई :)

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  8. उन महानगरी सज्जन के साथ तो काफी ज़ुल्म हो गया।

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  9. तभी पुरनिये कहते थे बर्रे पीटे बरात न करे -गवईं शादियों में यह आज भी प्रासंगिक है !

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  10. अरविंद जी,

    ये 'बर्रे पीटे बरात न करे' का अर्थ थोड़ा मेरे लिये समझाइये, पकड़ में नही आ रहा....थोड़ा ठेठऊ में कमजोर हूं :)

    मनोज जी,

    पोस्ट एकदम मस्त लगी, दिल के करीब....का एकर बैनामा कराए हय का... पढ़कर तो मन लहालोट हो गया....वैसे बिस्तर पकड़ने की जल्दी में पहली पांत में लोग भोजन हेतु जल्दी बैठ जाते हैं कि बिस्तर पकड़ लो वरना रात मुश्किल हो जायगी....खाने के चक्कर में सोने का वांदे हो जाएंगे :)

    पोस्ट पढ़कर समझ गया हूं कि आप इन दिनों बहुत बारात कर रहे हैं ...... अउर गारी ओरी खोब सुन कर आनंद ले रहे होंगे :)

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  11. @क्या सतीश भाई आपौ न समझेगें तो फिर कौन समझेगा -
    भाई पुरनियों की पते की बात यह है कि बर्रे (वैस्प ) /ततैया का छत्ता पीट लें ,उनका डंक सह लें
    यह कबूल मगर शादी में न जायं -वह और भी कष्टकर हो सकती है !

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  12. अरविंद जी, बहुत बहुत आभार इस सुन्दर जानकारी के लिये।

    वैसे सुना है कि पुरनिये लोग ही ज्यादा बारात करते थे..बड़हर रखते थे, जहां जाते हफ्ता दस दिन तक बारात ही करते रहते थे :)

    संभवत: उन दिनों में आने जाने की, परिवहन आदि की सुविधा न होने से ऐसा चलन में आया होगा और उसी के फलस्वरूप ये उक्ति प्रचलन में आई होगी।

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  13. जिन लोगों के यहां अपने ही घर सब्र से बैठ कर दारू पीने का रिवाज़ नहीं होता, वे तो एक दम पगालए से रहते हैं... बस किसी शादी-ब्याह का नौता मिल भर जाए. दारू पीकर टुन्न होना ही उनका एकसूत्री कार्यक्रम रहता है, कया गांव क्या शहर...

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  14. बेचारे सज्जन जी । बहुत अच्छी पोस्ट। धन्यवाद।

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  15. वाह ...बहुत ही अच्‍छा लिखा है आपने सामयिक प्रस्‍तुति ।

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  16. बहुत ही रोचक लेखन है आपका। साधुवाद।

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  17. ओह अफ़्सोस की उन सज्जन की फ़जीहत हो गई.

    रामराम.

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  18. Shabdon ke madhyam se Shandar chitran kiya hai aapne. Padhkar laga kisi shadi me hokar aaye hain.

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  19. जी हाँ..आप ने बिलकुल सठिक कहा है सर...धन्यवाद..!

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  20. गाँव की ज़िंदगी ज़रा अलग सी हुआ करती है, झूटी शान के नाम पे ऐसा बहुत कुछ किया जाता रहा है और अब यह सब आदत मैं शुमार हो चुका है. वक़्त लगेगा बदले मैं. लेकिन बदल के लाया क्या जाए? डिस्को, क्लब मैं पार्टी?
    .

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  21. सुन्दर वर्णन किया है आपने । आनंददायी !

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  22. आज ध्यान से पढ़ा..आनन्द आ गया.

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  23. ek baat to hai ki kuchh baaton me hamaara desh ek hai...haryana me bhi yahi haal hai....

    bahut dino baad aa saka. udarta barten..

    sadhuwaad..

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  24. Kya Karenge Sir Sab Moh- Maya Hai ...
    sir ek sawal tha shadi me baind partiyan ye gana "ye desh hai veer jawano ka " zaroor bajati hai iske piche kya tark hai .....

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  25. सर बहुत बढ़िया पोस्ट कहानी का तालमेल बहुत अच्छा लगा.

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