लोकतंत्र का महापर्व सामने है .शतरंज की बिसात बिछ चुकी है .पासे फेंके जा रहे है और साथ ही में रणभेरी भी सुनायी पड़ रही है , बस केवल कमी पांचजन्य की है अफ़सोस है कि भारतीय राजनीति में आज कहीं भी किसी के पास केशव नहीं हैं .जनता बेचारी की भूमिका में है ,जैसे महाकाब्याकालीन भारत में द्रोपदी की थी ,उसका आर्तनाद सुनने वाला कोई नहीं .उसे तो आज भी केवल दो जून रोटी और सर छिपाने के लिए छत की तलाश है .यह २१वी सदी के भारत की सच्ची तस्वीर है .लेकिन चिंता किसे है -हाल बदतर है क्या किया जाये -चैन दूभर है क्या किया जाये राजधानी में उनके कंधों पर उनका बिस्तर है क्या किया जाये ,और रात दिन तिजोरिया अपनी आदमी के लहू से भरतें हैं -देवता उनकी वन्दनाओं को जाने कैसे कबूल करतें हैं .
गाँव- गाँव- ,शहर -शहर एक से एक महा महा मुखिया -माफिया -धनपशु सोमरस ,चंद रूपये और मुर्गे की दावत का बहाना लिए घूम रहें हैं .ये वो लोग हैं जो की माननीय होनें की फिराक में हैं बस इनका जादू केवल एक महीने के लिए चल जाये .सब के सब आपनी पञ्च वर्षीय कुम्भाकरनी निद्रा का त्याग कर सक्रिय हो चुकें हैं -जग चुकें है .अफ़सोस जनक पहलू यह है कि आजाद भारत में अब तक कोई सो रहा है तो वह है मतदाता .बकौल सालिग राम साव कि ''जिनको हमने कभी न देखा उनको आज सड़क पर देखा हो हो भैया देखो आया चुनाव ''. यह दुर्भाग्य है कि इस महा पर्व को हम चंद रूपयों -दारू और मुर्गा पर दाव लगा देते हैं और हमारे आप के बीच तथाकथित बुद्धिजीवी भाई लोग अपना पूरा का पूरा समय प्रलाप करने में या असहमति में ही बिता देतें है और ठीक चुनाव के दिन भी अपना मत देने बूथ पर भी नहीं जाते न ही जनजागरण में निकलतें हैं ..
आज एक बुजुर्ग मिल गए ,वाकई सच्चे समाजवादी ,उम्र ७६ साल .डॉ राम मनोहर लोहिया जी के निर्देशन में समीप रह कर कभी राजनीति और समाज सेवा में सक्रिय रहा करते थे ,यह वह दौर था जब कोई कमाने के लिए राजनीति नहीं करता था बल्कि समाज सेवा का जूनून था -देश के लिए कुछ करने का गरूर था पर समाजसेवा और राजनीति के निहितार्थ बदलते ही आज इन जैसों की कोई सुनने वाला नहीं है ये सब तमाम अनुभव लेकर भी ये हासिये पर है लेकिन धन नहीं कमाया तो क्या ?स्वाभिमान आज भी ऐसा कि भले ही लाख तंग हाली हो पर किसी के आगे हाँथ नहीं फैलाना .भले ही उनका इतिहास स्वर्णिम रहा हो परन्तु उन्होंने धन नहीं कमाया तो आज तंगहाली के दौर में हैं .मैंने कहा चाचा जी इस चुनाव में क्या करना है .उन्होंने कहा कवन चुनाव -कैसन चुनाव -आज तो समाजसेवी मैदान में दिख ही नहीं रहें हैं केवल नेता और अभिनेता ही चुनावी मैदान में है और साथ में हैं माफिया जोकि पहले ये नेताओं को चोरी छुपे मदत करते थे धीरे धीरे दो-तीन चुनावों से यही खुल कर खुद ही सामने आ गए हैं , अब सच्चे लोग ही खुल के इनकी मदत कर रहें हैं .मैंने कहा फिर भी किसी पार्टी या उम्मीदवार का साथ तो देना है न नहीं तो देश का विकास कैसे होगा .उन्होंने कहा वर्तमान चुनाव में जीते कोई भी लेकिन हारेगा तो मतदाता ही .उन्होंने कहा आंकडो पर मत जाइये खुद सर्वे कर के देखिये कि अनुपात में पहले से गाँव गाँव में गरीबी बढ़ी है कि नहीं .किसको लाभ मिल पा रहा है सब कुछ बिचौलिये खा जा रहें हैं ,है कोई देखने वाला .गरीबी बढ़ रही है , शिच्छा के उद्योग चल रहें है ,स्वास्थ सेवा के नाम पर मेवा की कमाई हो रही है ,हर तरफ अँधेरे का बोल बाला है ,नैतिकता की बातें केवल किताबों के अन्दर लाइब्रेरी की शोभा बढा रहें हैं ,जिस देश में नेता सुबह से शाम तक अपना राजधर्म और आस्था बदल रहें हो ,हम जैसे लोग किसके लिए लोंगों से अपील करें . चुनावों से नयी क्रांति - और नयी सुबह के बारे में जो तुम सोच रहे हो वह केवल और केवल निरा स्वप्न है जो कि कभी पूरा नहीं होता दीखता .उनकी बात आज मुझे बार -बार दिन भर कचोटती रही कि लोकतंत्र के इस महा पर्व से आम आदमी कितना दूर जा रहा है और शायद इस लिए कि चलते -चलते आपको स्व .डॉ राजेंद्र प्रसाद मिश्र जी की चुनावों पर समकालीन एक रचना पढाते चलें कि -
लेखक रोते ही भूखों मरें ,कवि को न मिले धन धाम बडाई|
नैतिक मूल्यों से जो हैं जुड़े ,उनको भी कहाँ मिलती प्रभुताई ||
केवल माफिया छाई रहे ,यह देखि कुभाव बढे अधिकाई |
देश टूटे या समाज मिटे ,तुमहू सब छाडि उडाओ मलाई ||
शनिवार, 21 मार्च 2009
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हालत तो यही है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो है ही. हालत बदतर ही हुई है इसमें कोई दो राय नहीं. पर जो भी हो वोट तो डालना ही चाहिए. 'कोई पसंद नहीं' का आप्शन अगर बैलट में डाल दिया जाय तो कुछ शायद कुछ लाभ हो.
जवाब देंहटाएंमैंने कहा चाचा जी इस चुनाव में क्या करना है .उन्होंने कहा कवन चुनाव -कैसन चुनाव -आज तो समाजसेवी मैदान में दिख ही नहीं रहें हैं केवल नेता और अभिनेता ही चुनावी मैदान में है और साथ में हैं माफिया जोकि पहले ये नेताओं को चोरी छुपे मदत करते थे धीरे धीरे दो-तीन चुनावों से यही खुल कर खुद ही सामने आ गए हैं , अब सच्चे लोग ही खुल के इनकी मदत कर रहें हैं .
जवाब देंहटाएंआज हर भले इन्सान की यही पीडा है. बहुत सटीक और सामयिक पोस्ट लिखी है आपने. शुभकामनाएं
रामराम.
लोकतंत्र का बहुत ही बढियां खाका ! मगर मा पलायनम ! हमारा प्रयास हो कि जो कुछ भी यथास्थिति को बदलने के लिए किया जा सके अवश्य किया जाय !
जवाब देंहटाएंsabse badi samasya hai ki hum logon ki kheenchayee karne mein zyada waqt zaya karte hain lekin jab faisla lene ka waqt ho to chup kar jate hain
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिखा जी। वैसे यह बड़ा थकेला-थकेला सा चुनाव है। मार्केट में पैसा नहीं है, पार्टियों में (माया भैन जी को छोड़) जोश नहीं है। भाजपा अपने में ही लड़ रही है। कांग्रेस में भी आत्मविश्वास नजर नहीं आता। कारत का स्टेटमेण्ट है कि उनकी पार्टी पहले सा नहीं कर पायेगी।
जवाब देंहटाएंसब बड़ा शिलिर शिलिर है - रागदरबारी के शिवपालगंज की तरह।
लेखक रोते ही भूखों मरें ,कवि को न मिले धन धाम बडाई|
जवाब देंहटाएंनैतिक मूल्यों से जो हैं जुड़े ,उनको भी कहाँ मिलती प्रभुताई ||
केवल माफिया छाई रहे ,यह देखि कुभाव बढे अधिकाई |
देश टूटे या समाज मिटे ,तुमहू सब छाडि उडाओ मलाई ||
स्व .डॉ राजेंद्र प्रसाद मिश्र जी की चुनावों पर समकालीन रचना acchi lagi....!!
बहुत ही सच लिखा आप ने जो कल तक शर्म से छुप कर रहते थे आज सरे आम हमाते नेता बने फ़िरते है... लेकिन कब तक.....कभी तो इन बेशर्मॊ की बेशर्मी का प्याला भरे गा या फ़िर दुखी जनता उसे छीन कर फ़ेंक देगी.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आप के एक सटीक लेख के लिये
क्या नेता और क्या जनता जी ?
जवाब देंहटाएंसब एक ही थैली के चट्टे + बट्टे हैं। क्या हम ग़लत हैं ? हा हा।
बहुत उम्दा लेख।
केवल माफिया छाई रहे ,यह देखि कुभाव बढे अधिकाई |
जवाब देंहटाएंदेश टूटे या समाज मिटे ,तुमहू सब छाडि उडाओ मलाई ||
" ये दो पंक्तियाँ ही पूरा चित्र ब्यान कर रही हैं...."
Regards
kafi achaa laga
जवाब देंहटाएंAaj ki janta agar jagruk ho jaye to fir kis baat ka roona,
laikin kun sunta hi sab to ye sochta hai ki pahel kaun kare is systum se ladne ki
Ek kahawt hai na -ki bille ke gale me ghanti kaun bandhe,
warna samjhdaar to sab hai
-माफिया , अभिनेता ही नहीं अब तो खिलाडी भी इस मैदान में हैं.समाज सेवियों को टिकट कहाँ मिलता है.
जवाब देंहटाएं-लोकतंत्र के इस महापर्व की अहमियत कितनी रह गयी है यह सभी जानते हैं.
-गंभीर विचार परक लेख..और सामयिक भी.
chunav me acche aadmi kha dikhayi de rahe hai maphiya logo ki to chandi hai lekin ham bhi kam jimmedar nahi lo parcent jab tak nahi jayega janta jab tak jagruk nahi hogi ye sab hame dekhana hoga
जवाब देंहटाएंभाई जी,
जवाब देंहटाएंआपसे विनम्र प्रार्थना है कि चुनाव आयोग से कह कर वोटिंग मशीन में "इनमें से कोई नहीं" का भी एक विकल्प जुड़वाँ दें तो शायद ९० से ९५% वोट पड़ने शुरू हो जायेंगें और बहुमत "इनमें से कोई नहीं" को ही प्राप्त होगा और खड़े होने वाले सभी स्वार्थियों, बाहुबलियों को ये जनता जमानत जब्त करा कर सबक सिखा ही देगी.
उचित जनप्रतिनिधि खडा हो इसके लिए ऐसी व्यवस्था अपरिहार्य है, वरना एक तो चुनना ही होगा चाहे सापनाथ चाहे नागनाथ और कोई विकल्प भी नहीं.
चन्द्र मोहन गुप्त
आपकी कलम की शक्ति को मान गये!
जवाब देंहटाएंसटीक रचना के लिये बधाई स्वीकारें बंधुवर
जवाब देंहटाएंbahut sunder aur sateek.
जवाब देंहटाएंThis is my first visit to your pages. Would love to read more from you. If I could give one suggestion, please increase the size of fonts and spacing, it would help holding the reader.
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