गतांक से आगे ....
आजादी के बाद राधा कृष्ण आयोग(१९४८-४९),विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (१९५३),कोठारी शिक्षा आयोग (१९६४),शिक्षा की राष्ट्रीय नीति (१९६८)एवं नवीन शिक्षा नीति (१९८६)आदि के द्वारा भारतीय शिक्षा व्यवस्था को समय -समय पर सही दिशा देनें की गंभीर कोशिश की गयी परन्तु मैकाले द्वारा स्थापित प्रणाली को हम खारिज नहीं कर पाए .इस देश के आम लोग व स्वतंत्रता आन्दोलन के पुरोधा आजादी की लडाई क्यों लड़ रहे थे, केवल इस लिए की इस देश में अपना शासन होगा ,अपनी भाषा व संस्कृति होगी .आजादी के बाद से संभवतः अब तक भारतीय भाषाओँ विशेषतया हिन्दी को ,राष्ट्र भाषा के रूप में स्थापित करनें की अभी तक कोई गंभीर पहल नहीं की गयी परिणामत: हम आज तक एक भाषा सिद्धांत को स्थापित नहीं कर सकें हैं .एक भाषा सिद्धांत राजनैतिक ज्वालामुखी बन चुका है जो कि अक्सर अपना लावा फेकता रहता है .
भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली का दर्द किसी बुद्धिजीवी से छिपा नहीं है .शिक्षा जो कि किसी भी राष्ट्र के प्रगति का वाहक होती है यहाँ पर अब माफियाओं के हवाले हो गयी है .शिक्षा के सर्वोच्च एवं निचलों पदों पर आसीन लोंगों में भारी तादात उन लोंगों की है ,जिनका शिक्षा से कुछ भी लेना देना नहीं है .आज अधिकारी ,शिक्षक पढाना नहीं चाहते तथा भारी तादात में ऐसे विद्यार्थी हैं जो पढ़ना नहीं चाहते .सरकारी स्कूल राजनीतिक मंच बन गएँ है तो बरसाती कुकुरमुत्तों की तरह उग आये पब्लिक स्कूल बड़े कमाऊ पूत बन कर उभर रहें हैं और नव व्यवसाय के प्रमुख केंद्र बन चुके हैं .इन स्कूलों को प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों एवं आदर्शों से कुछ भी लेना -देना नहीं है .रोज़ -रोज़ बदलते पाठ्यक्रमों नें शिक्षा की ,तो किताबों के बोझ से दबे नौनिहालों को ,बेचारा बना दिया है .
प्रगतिवाद की आंधी ने शिक्षा के नैतिक मूल्य को तिरोहित कर दिया है .हर स्कूल के अपने -अपने अलग पाठ्यक्रमों ने अभिभावकों को चकर घिन्नी की तरह घुमा कर रख दिया . .वह अपनें बच्चों को कैसी शिक्षा दें ,तय नहीं कर पा रहा है .भारतीय शिक्षा व्यवस्था का स्वरुप कैसा हो ? यह बुद्धिजीवियों के समक्ष एक यक्ष प्रश्न की भांति तैर रहा है जिस पर व्यापक राष्ट्र व्यापी बहस की आवश्यकता है .इतना तो निश्चित ही है कि भारतीय शिक्षा का अतीत जितना स्वर्णिम था और जिन उद्देश्यों और आदर्शों की स्थापना के लिए हमारे मनीषियो ने इसे स्थापित किया था ,इसमें उत्तरोत्तर गिरावट के जो संकेत दृष्टिगोचर हो रहें हैं ,उसका परिणाम क्या होगा ? इसका उत्तर तो भविष्य के गर्भ में ही छिपा है .
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जवाब देंहटाएंअब शिक्षा का लक्ष्य बस नौकरी पाना है -तोतारटंत शिक्षा ही अब प्रेय है और श्रेय भी! अब या विद्या सा विमुक्तये का जमाना लद चुका -अब तो ऐसे आई ए एस पी सी एस अधिकारी भी हैं जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है की कैसे उनका चुनाव हो गया ! बस तोता रटंत विद्या ही अब सर्वोपरि है !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रही यह श्रृंखला .. जहां पहले प्रतिभावान ज्ञान प्राप्त करके उस ज्ञान से देश समाज का भला करने की चाहत रखते थे .. वहीं आज बच्चें को शिक्षा दे पाना सिर्फ समर्थ लोगों के हाथ में ही है .. जहां इतना खर्च कर डिग्रियां ली जा रही हों .. वहां नैतिक मूल्य क्या खाक बचा रह पाएगा ?
जवाब देंहटाएंउपर अग्रज मिश्रा जी ने बिल्कुल सटीक विषलेषण कर दिया है. इससे ज्यादा अब कोई लक्ष्य भी नही रह गया है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
सटीक विश्लेषण किया ही आपने बधाई .
जवाब देंहटाएंकहा जाता है कि - शिक्षा के क्षेत्र में जैसी व्यवस्था होगी वैसा ही शिक्षण कार्य होगा। नये निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पुरानी चली आ रही पारम्परिक व्यवस्था से हट कर कुछ नई व्यवस्था बनानी चाहिए। पर व्यवस्था के नाम ???पर शिक्षक व्यवस्था द्वारा संचालित होने के इतने आदी हो चुकें हैं कि शिक्षा के संदर्भ में वे स्वतंत्र होकर सोचने और निर्णय लेने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते।
जवाब देंहटाएंशिक्षा के क्षेत्र में यह सर्वमान्य तथ्य है कि बच्चे अपने परिवेश से खुद सीखते हैं बशर्ते कि उन्हें समृद्ध परिवेश मिले। यह बात पूरी तरह लागू होती है।
सारे परिदृश्य को बदलने के लिए शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में बदलाव, मूल्यांकन पद्दति में बदलाव और राजनीतिक इच्छाशक्ति की सख्त जरूरत है।
शैक्षिक विचारों से जुड़े बिंदुओं को ध्यान में रखें और उनके अनुरूप कार्य करें, तो वर्तमान समय की बहुत-सी समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है जिसका दूरगामी सकारात्मक परिणाम सामने आएगा।
अभिभावकों के लिए दुविधा तो हो ही गयी है. सही आकलन किया है आपने.
जवाब देंहटाएंवह शिक्षा जो समाज में रहने की अक्लियत देती है वह तो विद्यालयों से कब की हवा हो चुकी। वह परिवार में ही थोड़ी बहुत मिल जाए तो बहुत है।
जवाब देंहटाएंमैंने देर से पढ़ना शुरू किया, पर शुरू से अब तक का हर पोस्ट पढ़ गया. बहुत ही अच्छा और वास्तविक विश्लेषण चल रहा है. अगली कड़ी का इंतजार रहेगा.
जवाब देंहटाएंमुझे तो शिक्षा पद्धति में दोष ही दोष नजर आते हैं ..कभी लिखूंगी इस बारे में भी
जवाब देंहटाएंआपका लेख वाकई विचारणीय है..........अगर शिक्षा का यही हाल रहा तो भविष्य का क्या होगा
जवाब देंहटाएं... प्रभावशाली अभिव्यक्ति, पर क्या करें बच्चे व माता-पिता, इस सिस्टम को सुधारने हेतु कारगर कदम उठाना आवश्यक है ...सच कहूँ कुछ लकडबग्घों ने पूरे सिस्टम को बिगाड कर रख दिया है।
जवाब देंहटाएंवास्तव में सच कहूँ तो हमारी शिक्षा प्रणाली में बाबू बनाने की दीक्षा देने के अलावा क्या रखा था..यह सभ है की rattafication पर जोर था..मगर हाल ही किये गए कुछ सुधार..CBSEपाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तकों में बदलाव सराहनीय है.
जवाब देंहटाएंऔर आप को यह भी बता दूँ..कि स्कूली भारतीय शिक्षा प्रणाली को जापान भी अनुसरण करने की सोच रहा है.इतनी भी खराब नहीं है हमारी वर्तमान प्रणाली.
haan yah baat aur hai..shikshak padahna nahin chahtey aur students padhna nahin chahtey...reasons bahut hain...
गम्भीर चिंतन चल रहा है। इस अलग को जगाए रखिए।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
लोग सिर्फ़ आज महेंगे विद्यालयों को तरजीह देते है ,जबकि आज पढ़ना और पढ़ाई एक व्यवसाय सा बन गया है । आपने बिल्कुल सही कहा जहाँ पढ़ाई इतने ज़्यादा खर्चे के बाद ली जायेगी वह शिछा का मूल तो नष्ट होना ही है .....आपका लिख वाकई एक ऐसे विषये को जन्म दे गया है की जिसपर वर्षों चर्चा हो सकती है । आशा है आप आगे भी इस बारे में लाभप्रद जानकारियों से हमें अवगत कराते रहेंगे ......
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही फ़रमाया आपने! बहुत अच्छा लगा!
जवाब देंहटाएंअभिभावक की तो मरन है जी। मरन!
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