गुरुवार, 14 मई 2009

मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना


कचहरी भी क्या खूब है ,न जाने कितनों को रुलाती व हसांती है .जीवन संघर्ष में कभी -कदा हर किसी का पाला कभी ना कभी इस कचहरी से जरूर ही पड़ता है .मेरा भी पिछले १० सालों से एक मुकदमें के चक्कर में कचहरी आना -जाना लगा हुआ है .इस आने -जाने नें मुझमें एक नया जीवन जीने का दर्शन दिया .शुरुआती दिनों में जब मैं कचहरी जाता तो यही सोचता कि आज फैसला हो जायेगा ,मगर फैसला क्या हुआ कि अंगद का पावं हो गया .आज तक वहीं लटका है ,जहाँ से शुरू हुआ था .कभी वकील बन्धुओं की हडताल ,कभी किसी वरिष्ठ वकील साहेब की मौत पर शोक सभा ,कभी जज महोदय अवकाश पर ,कभी दुसरे पक्ष के वकील साहब अनुपस्थित ,कभी अगले ने ठीक बहस के दिन और समय मांग लिया ,तो कभी कुछ -तो कभी कुछ .मुकदमें हैं की बढते ही जा रहें है एकदम सुरसा के मुह की तरह . एक बार कचहरी आते -जाते मैं बहुत निराश हो गया था .तारीख के दिन अनावश्यक रूप से वकीलों की हडताल देख कर मै गुस्से में बिफर पडा ,मेरे पास ही एक ८० साल के बुजुर्ग खडे थे ,उन्होंने मुझे जो सीख दी मुझे आज तक नहीं भूलती .उन्होंने कहा की मेरा मुकदमा पिछले ७० सालों से चल रहा है , पहले मेरे पिता जी देखते थे ,अब मैं देखता हूँ और मुकदमें कि गति देख कर लगता है मेरे आने वाले वंशज भी इसे देखेंगे. उन्होंने कहा कि मुकदमा और कचहरी तो बेटे अपनें ही हिसाब से चलेगी तुम क्यों अपनी तबियत खराब कर रहे हो .केवल यहाँ आओ ,अपनें वकील से मिलो ,फीस दो और जाओ . .मैं अवाक रह गया ,और तब से उसी अनुसार आचरण कर रहा हूँ .
कचहरीके बारे में एक यथार्थ परक कविता पूर्वांचल के प्रख्यात कवि रहे स्व.कैलाश गौतम जी नें तीन दशक पूर्व लिखा था ,आश्चर्य है की आज भी कुछ नहीं बदला .मेरे वकील भाई माफ़ करेंगे मैं यह कविता जस की तस लिख रहा हूँ -
भले डांट घर में तू बीबी की खाना
भले जैसे -तैसे गिरस्ती चलाना
भले जा के जंगल में धूनी रमाना
मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना
कचहरी न जाना- कचहरी न जाना.
कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है
कहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं है
अहलमद से भी कोरी यारी नहीं है
तिवारी था पहले तिवारी नहीं है
कचहरी की महिमा निराली है बेटे
कचहरी वकीलों की थाली है बेटे
पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे
यहाँ पैरवी अब दलाली है बेटे
कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे
यही जिन्दगी उनको देती है बेटे
खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं
सिपाही दरोगा चरण चुमतें है
कचहरी में सच की बड़ी दुर्दशा है
भला आदमी किस तरह से फंसा है
यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे
यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे
कचहरी का मारा कचहरी में भागे
कचहरी में सोये कचहरी में जागे है
मर जी रहा है गवाही में ऐसे
है तांबे का हंडा सुराही में जैसे
लगाते-बुझाते सिखाते मिलेंगे
हथेली पे सरसों उगाते मिलेंगे
कचहरी तो बेवा का तन देखती है
कहाँ से खुलेगा बटन देखती है
कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है
उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है
है बासी मुहं घर से बुलाती कचहरी
बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी
मुकदमें की फाइल दबाती कचहरी
हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी
कचहरी का पानी जहर से भरा है
कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है
मुकदमा बहुत पैसा खाता है बेटे
मेरे जैसा कैसे निभाता है बेटे
दलालों नें घेरा सुझाया -बुझाया
वकीलों नें हाकिम से सटकर दिखाया
धनुष हो गया हूँ मैं टूटा नहीं हूँ
मैं मुट्ठी हूँ केवल अंगूंठा नहीं हूँ
नहीं कर सका मैं मुकदमें का सौदा
जहाँ था करौदा वहीं है करौदा
कचहरी का पानी कचहरी का दाना
तुम्हे लग न जाये तू बचना बचाना
भले और कोई मुसीबत बुलाना
कचहरी की नौबत कभी घर न लाना
कभी भूल कर भी न आँखें उठाना
न आँखें उठाना न गर्दन फसाना
जहाँ पांडवों को नरक है कचहरी
वहीं कौरवों को सरग है कचहरी ||

31 टिप्‍पणियां:

  1. A hard reality!!

    I have indirect similar experiences as my friend who had nothing in the death of his bhabhee, as we were living in hostel,put into jail under dowry sections, some months came out from Tihar and a brilliant career has been ended!

    And when on fone, I listened his experiences, i thought that it is better to pay police rather than spoil life and time.

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  2. जैसी मेरी कल्पना की कचहरी को कविता में ढाल दिया गया है। कचहरी का चक्कर किसी श्राप से कम नहीं लगता।
    घुघूती बासूती

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  3. इश्वर कचहरी और अस्पताल दोनों से बचाए.कविता तो जोरदार थी. आभार.

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  4. न जाने गांव के कितने लोगों ने वकीलों और कचहरी के चक्‍कर में अपना सबकुछ गंवाया है .. इसलिए अब वे खुद ही समस्‍याओं का हल निकाल लेते हैं .. पर वकीलों और कचहरी के चक्‍करों में नहीं पडते .. आपकी इस रचना में इसका सटीक चित्रण किया गया है।

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  5. कैलाश गौतम की एक कविता मैने अपनी आवाज कें प्रस्तुत की थी - डेढ़ साल पहले! वह याद आ गयी

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  6. aapne bilkul saty ko blog ke madyam se logon ke beech phuchaya hai ......
    kafi achhi lagi ye post aapki....

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  7. भाई हमारे यहां कहावत है कि मौत, मुकदमा और मंदी इन से बचकर रहना चाहिये. आदमी का जब खराब समय आता है तब ही इनसे पंगा लेता है. बहुत बढिया लिखा आपने.

    रामराम.

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  8. आपने कचहरी के बारे में एकदम सही लिखा है जब मै ग्रेजुअशन कर रहा था तो बहुत से वकील साहेबान मेरे साथ जाते थे । आज उनकी याद आप ने दिला दी ,मैंने भी उन्हें कचहरी का संधि - विच्छेद बताया था आज उसे सबको बताने का मौका आपने मुझे दिया है मने कहा था की .....कचहरी वह जगह है जहाँ हरी-हरी नोटों के लिए सुबह-सुबह कच-कच शुरू हो जाती है ,...यदि कोई वकील भाई इस बात को पढ़े तो कृपया बुरा न मने । अच्छी और मनोरंजक प्रस्तुति .........

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  9. सही कहा आपने ...भगवान् बचाए कचहरी से ..

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  10. कैलाश गौतम की इस कविता का प्रभाव गहरा है । पूर्वांचल में तो यह कविता जन जन की जुबान पर है ।
    इस प्रस्तुति के बहाने कैलाश जी की एक और कविता पढ़-सुन ली ज्ञान जी के लिंक से । सबसे बड़ी बात उनकी आवाज में "इ शहर न मरी " नामक कविता सुनना है ।
    आभार

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  11. आप ने कचहरी के सम्बन्ध में तीन दशक पुरानी कविता लिखी है। लेकिन यह तो हजार साल से भी पुरानी बात है। विष्णु शर्मा चाणक्य ने लिखा था राजा को न्याय करना चाहिए जिस से उस के विरुद्ध विद्रोह न हो। कचहरी की भूमिका तब सामंती साम्राज्य के लिए जो थी कमोबेश आज के जनतंत्र में भी वही बनी हुई है। इस के लिए आमूल चूल परिवर्तनों की आवश्यकता है। सब से पहले तो मौजूदा से चार गुना संख्या में अदालतों की जरूरत है। जब अदालतें पर्याप्त होंगी तो बहुत सी चीजें स्वतः ठीक होंगी। बहुत सी प्रयासों से सुधरेंगी।

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  12. aap ne kafi achha vyang likha kacahri k baare me .maza aagaya

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  13. कैलाश भाई का अक्स आपने सामने खड़ा कर दिया. उनकी लेखनी को फिर-फिर सलाम. और तुर्रा ये कि इसे कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट न माना जाए.

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  14. कैलाश गौतम की ये कविता वाकई आज भी इतनी ही प्रासंगिक है जितनी पहले..................आपने सही लिखा है..........हमारे देश में न्याय की गति इतनी धीरे है की ............उसका प्रभाव ही ख़त्म हो जाता है..........
    मैं मानता हूँ की हमारी व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता है...............सुधार की आवश्यकता है

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  15. कविता बहुत अच्छी लगी ..कचहरी और अस्पताल जाने से हर इंसान दूर ही रहे तो अच्छा

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  16. बहुत नयेपन का अनुभव हुआ

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  17. ये कविता मैनें उनकी आवाज़ में सुनी थी,याद दिलाने के लिये धन्यवाद...पर मेरे पेट पर लात क्यों मारते हो कमेन्ट देने वालों..........हर मुकदमें में एक व्यक्ति सही होता है और एक व्यक्ति जरूर गलत होता है।जो सही है उसे अपने आप को सही साबित करने के लिये कचहरी तो जाना ही पडेगा.....

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  18. कचहरी का यथार्थ तो यही है. रचना पसंद आई. और आपकी इस पोस्ट की बदौलत हम ज्ञान भैया का कविता पाठ भी सुन आये.

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  19. aaj bhi yah kavita utni hi prasangik hai jitni tab rahi hogi.

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  20. कैलाश जी की याद दिला दी आपने. मैंने मंच पर उनके श्रीमुख से यह कविता सुनी. कानपुर, फर्रूखाबाद, इटावा, दिल्ली आदि के कविसम्मेलनों में उनका सान्निध्य आज भी याद है. बहुत ही जीवंत व्यक्ति थे कैलाश जी. खैर.... आपकी प्रस्तुति के लिये साधुवाद..

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  21. अरे मनोज जी वकील छोड सभी का दर्द उजागर कर दिय आप्ने .जरा हमारे यहन आयि के चखि लो जोर्दार ’तडका ’ लगावा गवा बा .

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  22. Kachharee ka sahee aur katu chitra samne rakkha hai ,badhai.
    mere blog par protsahan dene ke liye dhanyvad.Best of luck .

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  23. सोच रहा हूँ कि टिप्पणी करुँ या नही, गर किसी वकील ने मेरी टिप्पणी पर ही कचहरी का मुख दिखला दिया तो मेरा तो जो होगा सों होगा पर लेख के हिसाब से मेरी पुश्तें भी झेलेंगी.....आपने तो न्याय के दरबार से ही डरा दिया.............

    चन्द्र मोहन गुप्त

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  24. क्या बात है मनोज जी, आप भी कचेहरी में फंसे हुए हैं क्या?
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  25. आपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
    बहुत बढ़िया लिखा है आपने कचहरी पर! मैं तो कचहरी से कोसों दूर रहती हूँ!

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  26. जबर्दस्त कविता है गौतम जी की। पढ़वाने का शुक्रिया मनोज भाई...

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  27. कितनी आश्चर्यजनक बात है ना कि पिछले ३० सालों में कचहरी के हालात जस के तस हैं, कुछ भी नहीं बदला...छोटी-छोटी बातों के लिए कचहरी के चक्कर लगाना किसी को पसंद नहीं....मगर मजबूरी सब करवाती है....भगवान बचाए इस कचहरी के चक्कर से.....

    साभार
    हमसफ़र यादों का.......

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  28. झुठे मुकदमें और गलत काम करते है खुद लोग,
    फिर फीस ले कर चोरों/कातिलों/ बलात्कारियों की गलत पैरवी करते है वकील,
    पर बदनाम होती है सिर्फ अदालतें ।

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आपकी टिप्पणियाँ मेरे ब्लॉग जीवन लिए प्राण वायु से कमतर नहीं ,आपका अग्रिम आभार एवं स्वागत !