शनिवार, 9 जनवरी 2010
कांवर रथी :एक धार्मिक लोक परम्परा जो कि अब अवसान पर है .......
बचपन से ,जब से जानने-पहचानने की शक्ति विकसित हुई है,तब से देखता आ रहा हूँ की हर वर्ष जाड़े(माघ ) के महीनें में गंगोत्री (उत्तराखंड) से गंगा जल , छोटी-छोटी मनोहारी शीशियों में भर कर , कांवर में रख कर एक पंडित जी आते रहें है.वे इस परम्परा को आज भी ८१ वर्ष की अवस्था में भी बरकरार रखें हैं .आज और कल में फर्क बस इतना है कि अब कांवर की जगह टोकरी नें और शीशियों की जगह उसी रूप में प्लास्टिक के डिब्बियों नें ले लिया है।
८१ वर्ष की उम्र में भी गजब की ताजगी लेकिन अब भविष्य में अपने आगमन के प्रति सशंकित भी.इस लिए अबकी बार पहली दफे वे अपनें नाती को भी ले आयें हैं अपने यजमानों से परिचित कराने.
नाम है पंडित पारस नाथ पैन्युली ,गांव -तिल पड़ ,पोस्ट-महर गांव( पट्टी गमरी) ,जिला-उत्तरकाशी (उत्तराखंड)
पहली बार इसी साल पंडित जी नें भी मोबाइल ले लिया है ९९९७२५६६४१ और ९९९७४७३३६ । वशिष्ठ गोत्रीय पंडित जी अपने यजमानों के सुदीर्घ जीवन,धन,सम्पदा एवं ऐश्वर्य के लिए गंगोत्री से गंगा जल लेकर चलते हैं .प्रत्येक यजमान एवं उसके परिवार के लिए अलग-अलग गंगा जल की शीशी होती है.इन शीशीयों में रखे जल को अभिमंत्रित पूजा अपने यजमानों द्वारा करा कर ये महाशिव रात्रि पर्व पर बाबा बैजनाथ धाम (झारखंड)में भगवान भोले नाथ को अर्पित करते हैं.
(हमारे सुपुत्र चि.आयुष्मान ,पूरे परिवार की तरफ से गंगा जल शीशी की पूजा कराते हुए.)
यह परम्परा कब से है ,इसकी कोई ज्ञात तिथि या वर्ष किसी को भी पता नहीं है .संभवतः यह तब से जब से मानव में धर्म के प्रति आस्था और लोकाचार का भाव विकसित हुआ होगा.इस देश मेंविभिन्न धर्मों,संस्कृतियों ,मतावलम्बियों का आवागमन रहा लेकिन इस धार्मिक लोक परम्परा को कोई तिरोहित न कर पाया।
इस कड़ाके की ठंड में अब भी परम्परा निर्वहन हेतु पंडित जी (कांवर रथी ) घर से निकल पड़ते हैं और पूरे तीन माह बाद ही अपनें घर उत्तरकाशी लौट पाते हैं.इस मंहगाई के दौर में प्राप्त दक्षिणा से भी कुछ होने वाला नहीं है परन्तु यजमानों की कुशलता के लिए निष्काम भाव से यह आज भी पहले जैसे ही सक्रिय हैं.
पंडित जी नें बताया कि जब वे १५ साल के थे तभी से यहाँ मेरे घर आ रहे हैं और आज वे ८१ साल के हैं.उन्होंने हमारे स्व.दादा जी "वैद्य प्रवर " पंडित उदरेश मिश्र एवं पिता जी स्व.डॉ राजेंद्र प्रसाद मिश्र के साथ बिताये पलों को भी आज ताजा किया.आज इतना लम्बा अनुभव लिए वे हम सब के साथ हैं.ऐसा नहीं है कि ये पुरोहित हर घर जाते हों ,बल्कि हर एक पुरोहित के पीढी दर पीढी एक यजमान है ये केवल उस परिवार तक ही अपने आपको सीमित रखते हैं .पंडित पारस नाथ जी नें बताया कि उनके पिता स्व.महाबीर प्रसाद एवं दादा स्व.हंसराज भी परम्परागत रूप से इस परिवार के पूर्वजों से जुड़े थे।
पंडित जी अब वृद्ध हो चले हैं ,८१ की उम्र हो गयी,अब उनको लगता है पता नही आगे आ पाएंगे कि नहीं इसी लिए इस धार्मिक परम्परा के अबाध गति से सञ्चालन हेतु इस बार वे अपने साथ अपने नाती पंडित ब्रह्मा नन्द जी को लेकर आयें है ,अपने यजमानों से मिलाने और उनका घर दिखाने.लेकिन नाती की अपनी अलग दुनिया है? पता नहीं इस आधुनिकता के दौर में उसे यह भाएगा?
"जानि शरद ऋतु खंजन आये " की तर्ज पर इन कांवर रथी लोंगो को देखकर हम सब भी बचपन से ही जान जाते थे कि स्नान-ध्यान ,पुण्य का महीना "माघ "आ गया है.हमारी धर्म -परम्पराएँ ,हमारे लोकाचार कितनें विलक्षण हैं.
अब सवाल यह है कि आधुनिकता के दौर में यह परम्पराएँ कब तक चल पाएंगी?मुझे तो ऐसा लगता है कि अवसान की ओर उन्मुख ये लोकाचार, अगले कुछ वर्षों में हम सब को विस्मृत हो जायेंगे?
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महत्व न देने के कारण बहुत सी परंपराएं विलुप्त हो रही हैं .. चि आयुष्मान को शुभाशीष !!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट .ऐसी पोस्ट रोमांचित करती है.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट .ऐसी पोस्ट रोमांचित करती है.
जवाब देंहटाएंबचपन की बहुत सी स्मृतियाँ तरोताजा हो आईं ...हाँ तब कांच की शीशी में पवित्र(गंगा ) जल लेकर आते थे कामारथी ...हाँ उस समय तो यही उच्चारण होता था इनका ....लेकिन कावंर रथी ही सही लगता है ..जो उत्तर की भीषण ठण्ड से बचने के लिए कंधे पर अपना बोरिया बिस्तर लादे मैदानी क्षेत्रों में उतर आये वह कांवर रथी है -कारवाँ और कांवर शब्दों का समय भी अद्भुत है ...
जवाब देंहटाएंअस्तु ,
मुझे यह प्रवृत्ति पशु पक्षियों के प्रवास गमन से अलग नहीं लगती जो जाड़े के आगमन के साथ ही धुर उत्तर से दक्षिण को चल पड़ते हैं जहाँ सूर्य का अधिक देर तक प्रकाश और तदनुसार दाना पानी की सहूलियत हो जाती है -आज भी वह क्रम जारी है .चिड़ियाँ भी एक निश्चित स्थल पर रुकती है और ये कांवर रथी भी निश्चित यजमानों के यहाँ -मनुष्य ने अपनी इस प्रवास प्रव्रत्ति का विधिवत अनुष्ठानीकरण किया और गंगाजल आदि और जजमान के विघ्न रहित भविष्य की कामना (यह प्रकारांतर से खुद अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का उपक्रम ही तो है ) के फलस्वरूप विधि विधान पूजन स्तवन का स्वरुप दिया ..कालांतर में यह एक सांस्कृतिक परिपाटी बन गयी -मुझे बहुत अच्छा लगा इस घटना को ब्लॉग जगत में लाना ,यह भी कि "आयुष्मान " आयुष्मान ने सभी के लिए इस परम्परा की जीवंतता की रस्म निभायी!
अच्छा, यह परम्परा चल रही है?! जान कर बहुत अच्छा लगा और पंडित पारस नाथ पैन्युली का परिचय बहुत भाया। फिर मिलें तो कहियेगा कि उनकी याद मन में बन गई है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी पोस्ट।
यह वाक्य यूं पढ़ा जाय - "कारवाँ और कांवर शब्दों का साम्य भी अद्भुत है "...
जवाब देंहटाएंबहुत से काम हैं जो अभी अपनी परंपरा से चल रहे हैं। उन में से एक यह भी है। जब हम कभी यात्रा पर किसी तीर्थ जाते हैं और वहाँ पंडा हमें हमारा पंडा बता देता है जिस की बही में न जाने कितनी पीढ़ियों के नाम दर्ज निकलते हैं। यह भारत में ही हो सकता है।
जवाब देंहटाएंपंडित पारस नाथ पैन्युली को प्रणाम...आपक आभार परिचय के लिए...
जवाब देंहटाएंचिरंजीव को ढेर आशीष!!
बहुत बढिया लगा पढकर , आपका भी आभार इस प्रस्तुति के लिए ।
जवाब देंहटाएंआयुष्मान के हाँथ में गंगाजल जारी आगे की
जवाब देंहटाएंपरंपरा की सूचना है ..
लेकिन ब्रह्मानंद कैसे लेते हैं इसको , यह महत्वपूर्ण है ..
ललचाता हूँ और सोचता हूँ कि कभी ऐसा होता कि
कोई '' पारस '' मुझे भी मिलते और मेरे परिवार की पोथी बांच देते , थई हो जाती ..
ऐसी चीजों पर मन भावुक हो जाता है ..
आपका अनुसरण कर रहा हूँ , सुन्दर पढ़ने को मिलता रहेगा भविष्य में ..
......... आभार ,,,
समय रहते 'युग-गाथा' को लिपिबद्ध कर लें आर्य !
जवाब देंहटाएंशायद कोई महाकथा निकल आए।
स्वार्थी लग रहा हूँ ? नहीं, आप की अनासक्ति पर दु:खी हो रहा हूँ। एक बार बैठिए तो सही रथी के साथ - ग्राम-मिथकों की भावभूमि संघनित हो ठोस हो जाएगी।
कुछ तो लुप्त होने से बच जाएगा।
आज आधुनिकता की होड़ में बहुत सी चीज़ें पीछे छूट जाती है ..आज यह सब परंपरा जो हमारे पूर्वज श्रद्धा से मानते थे थोड़ा-तोड़ा विलुप्त सा होता जा रहा है....बहुत बढ़िया बात याद दिलाई आपने ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया लगा पढकर ..
जवाब देंहटाएंपंडित पारस नाथ पैन्युली जी को प्रणाम कहिये, कही तो आज भी अस्था जिन्दा है, पंडित जी कॊ ओर उन की उम्र को देख कर श्राद्धा से सर झुक गया, आप का धन्यवाद
जवाब देंहटाएंदिलचस्प संस्मरणात्मक विवरण
जवाब देंहटाएंबहूत अच्छा लगा यह आलेख पढ़कर अपने बचपन कि यादे ताजा हो गई हम भी छोटे थे तब बद्रीनारायण से पन्दाजी आते थे जब वहां के पट बद होते थे तब उनकी खूब आव भगत होती थी हमको अच्छा नहीं लगता था हमारे दादाजी द्वारा दक्षिणा देना| पर हमने जब आज के करीब २० साल पहले चार धाम कि यात्राकी और वहां उन्ही पंडो के वंशज ने हमारी सारी व्यवस्था सुचारू रूप से कि और हमने पञ्च पीढ़ी तक के पूर्वजो कि हस्तलिपि देखि और हमारे नाम और उम्र देखि तो हम उनकी इस मेनेजमेंट के आगे नतमस्तक हो गये| कहाँ मध्य प्रदेश के छोटेसे गाँव ?और कहाँ उतराखंड ?
जवाब देंहटाएंहाँ पर ये भी सच है कि अब कोई पन्दाजी नहीं आते |आपका कहना बिलकुल सही है तथाकथित आधुनिक ता ने शायद हमारी आस्थाओ पर पर्दा डाल दिया है |
दुःख तो होता है पर परिवर्तन कब रुका है? शाश्वत क्या है? पंडित जी को प्रणाम और आयुष्मान को आशिष!
जवाब देंहटाएंआज कल हिंदुओं में धर्म के प्रति ऐसी आस्था और समर्पण कहाँ देखने को मिलता है?
जवाब देंहटाएं-पंडित जी ८१ साल की आयु में भी अपने इस धर्म को निभा रहे हैं उन्हें मेरे प्रणाम .
-यह बात सही है कि महत्व ना देने के कारण हमारी बहुत सी परंपराएँ लुप्त हो रही हैं.
--'बही 'वाली बात मैं ने भी सुनी है,सच है ऐसा भारत में ही देखा जा सकता है अन्य कहीं नहीं.
-यह जानकार बेहद खुशी हुई कि आयुष्मान ने सभी के लिए इस परम्परा की जीवंतता की रस्म निभायी , क्योंकि आज कल बच्चे पूजा में बैठने से भी कतराते हैं.
चिरंजीव आयुष्मान को मेरा शुभाषीश.
आभार .
वाह ऐसी परंपराओं के बारे में सुनकर अच्छा लगता है।
जवाब देंहटाएंआपके इस लेख जैसे लेख ब्लॉगजगत को सार्थकता देते हैं..पारसनाथ जी के बहाने समाज की लुप्त होती जा रही प्रवृत्तियों पर रोशनी डालने के लिये आभार
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ बदल चुका है और बदल रहा है । बहुत अच्छआलेख है धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंभारत देश परम्पराओ का देश है. ये सारी परंपराए हमें बहुत कुछ सोचने को समय समय पर विवश करती है कि हमने इस युग में क्या खोया और क्या पाया. पुरुखो कि परंपरा को अपनी अगली पीढ़ी में प्रवाहित करने के लिए धन्यवाद्.
जवाब देंहटाएंभई वाह स्वागत है आपका मनोज जी पोस्ट भी बढ़िया और पंडितजी के साथ-साथ बेटे से परिचय भी आयुष को ढेर सारा प्यार
जवाब देंहटाएंपंडित पारस नाथ जी के बारे में पढ़कर अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंआजकल इतने श्रद्धालु लोग कम ही बचे हैं।
बडे भाई मुझे भी पंडित पारस नाथ जी के सम्बन्ध मे पढ कर अच्छा लगा. यहा छत्तीसगढ मे भी उत्तरकाशी से एसे पंडित जी हर साल आते रहे है. बचपन मे इनसे गांव मे पवित्र जल की पुजा कर आशिर्वाद लेते थे और यह परम्परा पीढियो से आज तक जारी है. हम आज शहरो मे रहने लगे है किंतु आज भी हमारे घरो को खोज कर सुदुर उत्तरकाशी के यहा इनका आना मुझे अच्छा लगता है.
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लगा पढ़कर ।
जवाब देंहटाएंप्रणाम है पांडीज जी को हमारा ........... इतने लंबे समय तक किसी परंपरा को निभाना बहुत बड़ी तपस्या है ........ ऐसे लोग युगपुरुष की श्रेणी में आते हैं ...........
जवाब देंहटाएंमनोज जी
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी पोस्ट......पुरानी परम्पराओं पर आधुनिकता का ग्रहण लगने के कारण जीवन में न वो निश्चलता रही न वो सहज लगाव......!
इन विरोधाभाषों के बीच आपकी पोस्ट सुकून देने वाली लगी.
बहुत बहुत बधाई...
Aise log bahut kam rah gaye hain.
जवाब देंहटाएंक्या आप की गंगा जल की "शीशी " "प्लास्टिक" की है ???????
जवाब देंहटाएंअब सवाल यह है कि आधुनिकता के दौर में यह परम्पराएँ कब तक चल पाएंगी?मुझे तो ऐसा लगता है कि अवसान की ओर उन्मुख ये लोकाचार, अगले कुछ वर्षों में हम सब को विस्मृत हो जायेंगे?
जवाब देंहटाएंSawaal chintneey hai...aapne chitr diye,ye bada achha laga..
क्या बात है पंडित जी, वाह वाह !
जवाब देंहटाएंआप हमेशा ही इसी तरह कुछ बहुत ही सुन्दर, बहुत ही प्रेरक, बहुत ही मनभावन मगर इस सब से बढ़कर बहुत ही चिंतन और मनन योग्य प्रसंग प्रस्तुत करते हैं।
पंडित पारस नाथ पैन्युली जी से मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई जीवन की चरैवेती के लिए प्रेरणा भी और आपके प्यारे छोटू के साथ में उनकी सुन्दर तस्वीर यही याद दिला रही है कि-
बूढ़े बारे एक बिरोबर।
आपका सवाल जायज़ है कि आधुनिकता के दौर में यह परम्पराएँ कब तक चल पाएंगी?मुझे तो ऐसा लगता है कि अवसान की ओर उन्मुख ये लोकाचार, अगले कुछ वर्षों में हम सब को विस्मृत हो जायेंगे?
बहुत बहुत आभार आपका इस सुन्दर लेख के लिए।
सच कहें पंडितजी,
आज मन बड़ा खिन्न था मगर आपको पढ़कर प्रसन्न हो गया।
बहुत अच्छा लगा यह पोस्ट पढ़कर। बहुत सुन्दर!
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