मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

नेता तेरे रूप अनेक


कभी हंस दिखे बगुला से लगे ,कभी कोकिल से कभी काग लगे थे |
भा में रट्टू तोता लगे ,कभी बुलबुल से कभी गिद्ध लगे थे ||
सोनपांखी दिखे चरखी से लगे ,कभी मोर दिखे कभी चील्ह लगे थे |
कौन सी माया पढ़े हो लला ,उल्लू से दिखे पर बाज लगे थे ||

कभी गा दिखे पर सांड लगे ,कभी लोमडी तो कभी श्वान रहे थे |
कभी सिंह की भांति दहाड़ रहे ,कभी गीदड़ से छिप भाग रहे थे ||
बैल की भांति जुटे थे कहीं ,बिल्ले सा मलाई उड़ा रहे थे ||
बन मानुस से लगते थे लला ,पर माल पे हाथ लगा रहे थे ||
(राजेंद्र स्मृति ग्रन्थ से साभार ,रचना - स्व . डॉ .राजेंद्र प्रसाद मिश्र)

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

फ़िर तो बंद हो जायेंगी रेजर कम्पनियाँ !

आज हमारे क्षेत्र में सुबह- सबेरे एक स्थान पर, श्री राम चरित मानस का पाठ चल रहा था .सामाजिक सरोकारएवं सहभागिता निभाने मैं भी वहाँ पहुँचा .मेरे अंदर की खोज बीन वाली भावना लगातार सक्रिय रहती है ,उसी के दरम्यान मैंने देखा कि दूर एक चारपाई के पास कई लोग कुछ देख-सीख रहें हैं .उत्सुकता वश मैंनें भी अपनी दृष्टी को वहाँ केंद्रित किया तो मुझे एक अनोखा दृश्य दिखाई दिया वह यह कि एक बुजुर्ग सज्जन अपनी शेविंग नंगी ब्लेड से कर रहें है .मुझे आश्चर्य हुआ क्योंकि आज इस तरह का दृश्य नतो मैंने देखा था और नही करने की कभी सोच ही सकता हूँ .यह एक जोखिम भरा कार्य है .और तो और ,उनसे इस विधा को सीखने वालों की लाइन भी लगी थी और वे सबसे बेपरवाह अपने नित्य, दैनिक कर्म में लगे थे .मैंने तुरंत अपने कैमरे (जो कि सदैव मेरे साथ रहता है ) से उनकी तस्वीर उतारी ताकि आप भी इस नवीनता को देख सकें क्योंकि मेरे लिए तो यह अनोखा था .

ये सज्जन हैं श्री कमला प्रसाद जी जो कि बांगर खुर्द गाँव जिला सुल्तानपुर के निवासी एक अवकाश प्राप्त प्राइमरी पाठशाला के शिक्षक हैं , अपने रिश्तेदारी के चलते निमंत्रण में जौनपुर आये हैं . मैंने उनसे कहा कि यह तो शेविंग करने का वैज्ञानिक तरीका नहीं है ,इस तरह तो कभी आप मुसीबत में पड़ जायेंगे .उन्होंने कहा कि मैं तो बिलकुल आराम से पिछले तीन दशकों से इसी तरह शेविंग कर रहा हूँ मुझे तो आज तक कभी कोई परेशानी नहीं हुई और बहुतों को मैंने इसी तरह शेविंग करना सिखाया है .मेरे लाख समझाने के बाद भी वे अपने विचारों पर अटल रहे ,और अपने तर्कों को सक्रिय करते रहे तथा लोगों को इस तरह शेविंग से होने वाले फायदे के बारे में बताते रहे .
चाहे भी हो यह मेरे लिए तो बहुत ही हैरत अंगेज रहा मैनें आज तक इस तरह से किसी को शेविंग करते नहीं देखा था . दिन में कई बार सोचा कि कि कैसे -कैसे जुगाड़ लोग ढूंढ लेते हैं, इस तरह अगर सभी अपनी शेविंग करनें लगे तो फ़िर तो बंद हो जायेंगी रेजर कम्पनियाँ !

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

एपार जौनपुर - ओपार जौनपुर ....







अंतिम भाग .


1402 AD में मुबारक शाह की मृत्यु हो गयी .इसके बाद उसका भाई इब्राहिमशाह शर्की (1402 AD- 1440 AD) जौनपुर राज सिंहासन पर बैठा . इब्राहिमशाह के बाद उसका पुत्र महमूद्शाह फिर हुसैन शाह तथा अन्ततः जौनपुर 1479 AD के बाद दिल्ली सल्तनत का भाग बन गया . जौनपुर में सरवर से लेकर शर्की बंधुओं ने 75 वर्षों तक स्वंतंत्र राज किया .इब्राहिमशाह शर्की के समय में जौनपुर सांस्कृतिक दृष्टी से बहुत उपलब्धि हासिल कर चुका था .उसके दरबार में बहुत सारे विद्वान थे जिन पर उसकी राजकृपा रहती थी .तत्कालीन समय में उसके राज -काल में अनेक ग्रंथों की रचना की गयी .उसी के समय में जौनपुर में कला -स्थापत्य में एक नयी शैली का जनम हुआ,




जिसे जौनपुर अथवा शर्की शैली कहा गया .कला -स्थापत्य के इस शैली का निदर्शन यहाँ पर आज भी अटाला मस्जिद में किया जा सकता है ।




कहा जाता है कि शेरशाह सूरी की सारी शिक्षा -दीक्षा जौनपुर में ही हुई थी . कहा जाता है कि जौनपुर में इब्राहिमशाह शर्की के समय में इरान से 1000 के लगभग आलिम (विद्वान् ) आये थे जिन्होंने पूरे भारत में जौनपुर को शिक्षा का बहुत बडा केंद्र बना दिया था . इसी कारण जौनपुर को शिराज़े हिंद कहा गया .शिराज का तात्पर्य श्रेष्ठता से होता है .दरअसल तत्कालीन दौर में जौनपुर शिक्षा का बहुत बडा केंद्र बन गया था .


इस प्रकार हम देखतें हैं कि विभिन्न संस्कृतियों का साक्षी रहा यह जनपद अपनें इतिहास के क्रमबध्ध लेखन हेतु पुरातात्विक उत्खननों की प्रतिक्षा में है ,बगैर इन पुरातात्विक उत्खननों के जौनपुर का प्रारंभिक इतिहास उद्घाटित एवं प्रकाशित नहीं किया जा सकता .क्रमबद्ध इतिहास लेखन के लिए बगैर ठोस साक्ष्यों के ,संकेतक साक्ष्य आज भी बेमानी प्रतीत हो रहें हैं . आज तो पुरातत्व उत्खनन के लिए हमारे पास विकसित और समुन्नत तकनीक है ,यदि भविष्य में जौनपुर के चुनिन्दा स्थलों पर पुरातात्विक उत्खनन संपादित करवा दिए जाएँ तो उत्तर भारत का इतिहास ही नहीं अपितु प्राचीन भारतीय इतिहास के कई अनसुलझे सवालों का जबाब भी हमें यहाँ से मिल जायेगा ।


शनिवार, 11 अप्रैल 2009

एपार जौनपुर - ओपार जौनपुर .....5


गतांक से आगे .......
मौखरियों की शासन सत्ता के बाद जौनपुर निश्चित रूप से सम्राट हर्ष के अधीन रहा होगा ,क्योंकि हर्ष की विरुद "सकलोत्तर नाथ पथकर " की थी .हर्ष के बाद जौनपुर भी पूर्व -मध्यकालीन भारत के अन्य नगरों की भांति ही सामंतवादी शासन के अंतर्गत सामंतों के अधीन ही रहा होगा एवं सामंतों तथा राजाओं के सत्ता संघर्ष का साक्षी भी अवश्य हुआ रहा होगा परन्तु निश्चित रूप से अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित न कर सका होगा .जयचंद्र के शासन काल में जौनपुर को विशेष राजनीतिक महत्व प्राप्त था जिसकी अभिब्यक्ति तत्कालीन साक्ष्य करतें हैं .ऐसे प्रमाण मिलें हैं कि जयचंद्र ने जौनपुर में एक स्थाई सैनिक शिविर स्थापित किया था तथा जफराबाद में एक उच्च अधिष्ठान पर प्राप्त स्तम्भावशेष से इस सम्भावना को बढ़त मिली है कि यहाँ कभी जयचंद्र का बैठका रहा होगा .जयचंद्र के उत्तराधिकारी हरिश्चन्द्र का एक लेख जनपद के मछलीशहर से प्राप्त हुआ है ,जिसमें उसको अनेकानेक विभूतियों से अलंकृत किया गया है .



मध्यकालीन भारतीय इतिहास के श्रोतों नें जौनपुर की स्थापना का श्रेय फिरोजशाह तुगलक को दिया है ,जिसने अपने भाई मुहम्मद बिन तुगलक (जूना खां ) की स्मृति में इस नगर को बसाया और इसका नामकरण भी उसके नाम पर किया .लेकिन एक खास बात यह है कि जौनपुर राज्य का संस्थापक मालिक
सरदार (सरवर ) फिरोज़ शाह तुगलक के पुत्र सुलतान मुहम्मद का दास था जो अपनी योग्यता से १३८९ इस्वी में वजीर बना .सुलतान महमूद ने उसे मलिक -उस -शर्क की उपाधि से नवाजा था .१३९९ इसवी में उसकी मृत्यु हो गयी .उसके पद के कारण ही उसका वंश शर्की -वंश कहलाया .
ध्यातब्य है कि उसको कोई सन्तान नही थी ,उसके मौत के बाद उसका गोद लिया हुआ पुत्र मुबारक शाह गद्दी पर बैठा था .
जारी .................

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

हरखाय हिया तुम होहु दरोगा...........

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आदरणीय श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी के निर्देश के क्रम में पिछले 3 दिनों से मैं दरोगा -दरोगा हो रहा था ,अर्थात मैं महाकवि हास्यावतार चच्चा जी बनारसी के बारे में यत्र -तत्र -सर्वत्र खोज कर रहा था .आज बाटी -चोखा की ऐसी महक आयी कि मैंने सोचा कि इस महक में हमरे चच्चा की सुधि पुरानी नहो जाये इसलिए चारो ओर न सुनने के बाद जब मैंने अपनी पैत्रिक लाइब्रेरी "अरविन्द ज्ञान सोपान "को आज पुनः टटोला तो महाकवि की कोई रचना तो नहीं मिली परन्तु आज अखबार बनारस के वरिष्ठ सम्पादक रहे प्रख्यात साहित्यकार श्री लक्ष्मी शंकर ब्यास जी का संस्मरण हाथ लग गया जिसमे उन्होंने बनारस के हास्यावतार अन्नपूर्णा जी ( महाकवि चच्चा) का उल्लेख किया है .उन्होंने लिखा है कि हास्यावतार अन्नपूर्णा जी से उनकी मुलाकात १९४३ में आज अखबार के आफिस में हुई थी . हास्यावतार अन्नपूर्णा जी आज अखबार के संस्थापक रहे राष्ट्र रत्न स्व.शिवप्रसाद गुप्त जी के निजी सचिव थे .खादी की धोती ,सफ़ेद खद्दर का कुरता तथा खद्दर की बनारसी दुपलिया टोपी उनके ब्यक्तित्व को आकर्षक बनाती थी .उन्होंने महाकवि के बारे में लिखा है कि-
इनकी कवितायेँ ब्रज भाषा में हैं और तत्कालीन समाज की प्रवित्तियों का यथार्थ चित्रण उपस्थित करतीं हैं . हास्यावतार चच्चा जी
ने भूत नामक एक हास्य रस का पत्र भी निकाला था जो कि अपने आप में अनोखा और चर्चित था .इनके जीवन और मृत्यु के बारे में इस संस्मरण में कुछ नहीं लिखा है लेकिन श्री लक्ष्मी शंकर ब्यास जी ने लिखा है कि मगन रहु चोला ,मेरी हजामत और मिसिर जी शीर्षक हास्य-ब्यंग पूर्ण गद्य -पद्य कृतियाँ ,श्री अन्नपूर्णा जी को हास्य-ब्यंग के क्षेत्र में ऊँचे स्थान पर रखती हैं .आपने सैकडो हिन्दी पत्र -पत्रिकाओं के प्रथम अंकों का अद्भुत संग्रह किया था जो कि आज भी कोलकाता के नेशनल लाइब्रेरी
में सुरक्षित है .हास्यावतार चच्चा जी की की पत्नी नहीं चाहती थीं कि वे कविता करें , इन्हें नून -तेल ,लकडी की चिंता नहीं रहती थी .ये बस रोज नयी कविता की रचना कर मुदित रहते थे .घर बार की चिंता में ब्यस्त इनकी पत्नी ने अच्छी तरीके से जीवन यापन हेतु ,अपने परिवार और रिश्तेदारों की मदत से इनकी नौकरी की ब्यवस्था पुलिस विभाग में करनें की पूरी स्थिति बना दी थी ,लेकिन राष्ट्र -निर्माण में लगे कवि को यह नौकरी नहीं भाई , नौकरी को ताक पर रख वे कविता में ही रम गए लेकिन अपनी पत्नी के बात को उन्होंने कविता के माध्यम से यूँ रखा है तथा जिसका वर्णन उन्होंने खुद किया है -

वैद हकीम मुनीम महाजन साधु पुरोहित पंडित पोंगा ,
लेखक लाख मरे बिनु अन्न,चचा कविता करी का सुख भोगा|
पाप को पुण्य भलो की बुरो ,सुरलोक की रौरव कौन जमोगा,
देश बरे की बुताय पिया हरखाय हिया तुम होहु दरोगा ||

देश की तत्कालीन दशा पर महाकवि की एक रचना देखिये -

बीर रहे बलवान रहे वर बुद्धि रही बहु युद्ध सम्हारे |
पूरण पुंज प्रताप रहे सदग्रन्थ रचे शुभ पंथ सवारे||
धाक रही धरती तल पे नर पुंगव थे पुरुषारथ धारे|
बापके बापके बापके बापके बापके बाप हमारे ||

एक और रचना जो तत्कालीन समाज को प्रतिबिंबित करती है -

पेट पुरातन पाटत हो ,कछु झोकत हौ नहीं अंध कुँआ में |
जेई चले जगदीश मनाई ,करों बकसीस असीस दुआ में ||
बूढ भयो बल थाकि गए ,कछु खात रहे जजमान युवा में |
पूरे पचहत्तर मॉलपुआ ,अरु सेर सवा हलुआ घेलुआ में ||

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

एपार जौनपुर - ओपार जौनपुर .....4


गतांक से आगे .......
भारतीय पुरातत्व के अथक अन्वेषक सर अलेक्जेंडर कनिंघम को जौनपुर की बड़ी मस्जिद के प्रस्तर खंड पर इश्वरवर्मन का एक अभिलेख मिला था ,जिससे मौखरियों के इतिहास को प्रकाशित करनें में काफी मदत मिली थी तथा इसी अभिलेख की सातवीं लाइन में धार के राजा,आन्ध्र के राजा और रेवतक (सौरास्त्र ) के राजा के साथ हुए संघर्षों का उल्लेख है .यद्यपि संघर्ष का विवरण संपूर्ण नहीं है ,खंडित है लेकिन इससे इतना अवश्य ध्वनित होता है कि इश्वरवर्मन ने इन आक्रमणों को विफल कर दिया था तथा संभावित है कि यह युद्ध भी जौनपुर या उसके आस-पास ही हुआ होगा .हरहा लेख से यह ज्ञात होता है कि उसके पुत्र ईशानवर्मा ने हजारों हाथियों की सेना वाले आंध्रपति को पराभूत कर विजित किया था .उसने सूलिकों को हराया ,समुद्र तटीय गौडों को दबाया और उन्हें अपनी सीमाओं में रहने को विवश किया .इन विजयों के फलस्वरूप ही ईशानवर्मा अपनें वंश का प्रथम स्वतंत्र महाराजाधिराज . इश्वरवर्मन के जौनपुर पाषान अभिलेख में भी आंध्रों पर विजय का उल्लेख हुआ है . १९०४ में मौखरियों के कुछ सिक्के फैजाबाद के भितौरा नामक गावं से प्राप्त हुए थे .इन साक्ष्यों के अवलोकन से लवलेश मात्र भी शंका की गुंजाईश नहीं है कि जौनपुर पर मौखरियों का आधिपत्य नहीं था ।



इसी परिप्रेक्ष्य में जौनपुर के शाही पुल पर सम्प्रति में विराजमान गज-सिंह मूर्ति का तादात्म्य इश्वरवर्मन या ईशानवर्मा के आंध्रों पर विजय से स्थापित किया जा सकता है ,क्योंकि हरहा लेख में वर्णित है कि ईशानवर्मा नें आंध्रों की सहस्त्रों हस्तियों की विशाल सेना को चूर्ण -विचूर्ण कर डाला था .इतिहासकारों में इस मत पर आम राय है कि ईशानवर्मा नें उत्तरी भारत में अपनी स्वतंत्र संप्रभुता कायम कर ली थी .संभव है कि इस मुर्ति का अंकन आंध्रों पर विजय के प्रतीक के रूप में हुआ रहा हो तथा मध्यकालीन भारत में शाही पुल के निर्माण के समय में स्थानीय कलाकारों ने आकर्षन पैदा करनें के उद्देश्य से आस-पास से ही उसको स्थानांतरित कर शाही पुल के मध्य में स्थापित कर दिया हो .यह तो मेरे द्वारा स्थापित विचार है ,लेकिन यहाँ बुद्धिजीवियों की एक राय और है वह यह है कि यह मुर्ति बौध्ध धर्मं के विकास का प्रतीक है ,उन लोंगों का कहना है कि गज-सिंह मूर्ति वैदिक धर्मं पर , बौध्ध धर्मं के विजय का सूचक है .कुछ वर्ष पूर्व मैं और मेरे बड़े भ्राता डॉ अरविन्द मिश्र जी साथ -साथ एक कार्यक्रम के दौरान खजुराहो में थे ,वहाँ पर भी खजुराहो के मंदिरों पर कई जगह सिंह मूर्ति का अंकन दिखाई पडा .मेरे भाई साहब ने कहा कि यह चंदेलों का राज चिह्न है ,इस सम्भावना के कारण हो सकता है कि चन्देल राजाओं का कोई सम्बन्ध जौनपुर से रहा हो .मैंने इस पर अब तक गहन पड़ताल की परन्तु इस बारे में मुझे अब तक कोई संकेतक साक्ष्य नहीं मिला संभव है कि आगे मिल जाये और किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके .जौनपुर में चंदेल क्षत्रिय तो हैं ,वहाँ के नरेशों का इस जनपद के संभंध के बारे में कोई महत्त्वपूर्ण साक्ष्य अभी तक मेरे हाथ नहीं लग सका है .एक और शंका मन में उपजती है कि खजुराहो के मंदिरों पर अंकित सिंह मूर्ति और शाही -पुल जौनपुर पर स्थापित गज-सिंह मूर्ति की भाव-भंगिमा में काफी असमानता दिखती है .
जारी .................................

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

एपार जौनपुर - ओपार जौनपुर ........3




गतांक से आगे ...

इस जनपद के बक्सा थाना के अंतर्गत ग्राम चुरामनिपुर में गोमती नदी से सटे एक बड़े नाले के समीप ही एक अति प्राचीन मूर्ति है ,जो कि चतुर्मुखी शिवलिंग अथवा अर्धनारीश्वर प्रतिमा प्रतीत होती है .इस मूर्ति की पहचान जनसामान्य में चम्मुख्बीर बाबा के नाम से एक ग्राम देवता के रूप में की जाती है .मूर्ति कला कि दृष्टी से यह मूर्ति अपने आप में एक बेजोड़ प्रस्तुति है एवं सामान्यतया ऐसी मूर्ति का निदर्शन उत्तर -भारत में कम है .इतिहास कारों ने प्रथम दृष्टी में इसे गुप्तकालीन कृति माना परन्तु यदि संदर्भित क्षेत्र विशेष में बड़े पैमाने पर पुरातात्त्विक उत्खनन सम्पादित कराएँ जाएँ तो निश्चित रूप से जौनपुर और भारत के प्रारंभिक इतिहास लेखन में कुछ और महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ संलग्न हो सकती हैं .इसी क्रम में खुटहन थानान्तर्गत के गावं गढागोपालापुर का उल्लेख किया जा सकता है ,जो कि आज भी एक गढ़ सदृश्य दीखता है ,तथा लोक कथाओं एवं जनश्रुतियों में यह मान्यता बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है कि संदर्भित स्थल प्राचीन भारत में कभी किसी राजा की राजधानी था तथा गोमती उस गढ़ से सट कर बहती थी जिसे तत्कालीन राजा ने नदी की धारा को दूसरी ओर मोड़ दिया था . मौके पर आज भी ऐसा लगता भी है कि नदी की धारा मोड़ी गयी है ,वर्तमान में वह राजधानी नष्ट हो चुकी है तथा वहां
उपरी तौर से कुछ भी नहीं दीखता परन्तु दंत कथाओं में वह आज भी जीवित है .जिसे की आज भी उत्खनन की प्रतीक्षा है .इस सन्दर्भ में इस तथ्य का प्रगटीकरण करना समीचीन है कि समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति की २१ वीं लाइन में आटविक राजस्य शब्द मिलता है जिसे इतिहासकारों ने आटविक राज्य माना है .इतिहासकार फ्लीट और हेमचन्द्र राय चौधरी ने इन्हें जंगली राज्य मानते हुए इसकी सीमा उत्तर में गाजीपुर (आलवक) से लेकर जबलपुर (दभाल) तक माना है .संक्षोभ में खोह ताम्रलेख (गुप्त संवत २०९ -५२९ AD ) से भी ज्ञात होता है कि उसके पूर्वज दभाल ( जबलपुर ) के महाराज हस्तिन के अधिकार-क्षेत्र में १८ जंगली राज्य सम्मिलित थे .ऐसा प्रतीत होता है कि प्रयाग प्रशस्ति में इन्ही जंगली राज्यों की ओर संकेत किया गया है ,जिसे समुद्रगुप्त ने विजित किया था .इस सम्भावना को माना जा सकता है कि जौनपुर भी कभी इन जंगली राज्यों के अधीन रहा हो तथा संभव है कि यह भी तत्कालीन समय में भरों या अन्य जंगल में रहने वाली बनवासी जातियों के भोग का साधन बना हो तथा तथा केरारेबीर ,चम्मुख्बीर और बन्वारेबीर जैसे शासक (जिनका मंदिर वर्तमान में शाहीपुल और जनपद के आस-पास स्थित है ).इस क्षेत्र विशेष में इन जंगल में रहने वाली जातियों के नायक एवं सेनानी के रूप में चर्चित रहें हों .इन ऐतिहासिक स्थलों के गर्भ में छिपे इतिहास को प्रकाशित करने के लिए ब्यापक पैमाने पर उत्खनन की आवश्यकता है .इसके अलावा जनपद के मछलीशहर ,जफराबाद ,केराकत एवं शहर के पूर्वी ,पश्चमी एवं उत्तरी छोरों पर कुछ चुनिन्दा स्थल भी पुरातात्त्विक उत्खननों की प्रतीक्षा में हैं , इसके उद्घाटन से जौनपुर ही नहीं ,अपितु प्राचीन भारतीय इतिहास की कई अनसुलझी एवं अबूझ पहेलियों को सुलझाया जा सकेगा .
जारी ....................................

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

एपार जौनपुर - ओपार जौनपुर ......2




गतांक से आगे ..........
रामायण में वर्णित है कि कौशल के उत्तर में नेपाल की पहाडियां,दक्षिण में सर्पिका या स्यन्दिका (सई),पूर्व में सदानीरा व गोमती है .इस तथ्य से यह संकेत मिलता है कि छठीं शताब्दी b.c. में अथवा उसके पूर्व भी जौनपुर कौशल के अंतर्गत रहा होगा .इतिहास गवाह है कि जब छठीं शताब्दी b.c.के उत्तरार्ध में चार प्रमुख राजतन्त्रों -मगध ,कोशल ,वत्स और अवन्ति का उदय हुआ तो काशी भी कोशल के अधीन हो गयी .प्रस्तुत साक्ष्यों से यह तादात्म्य स्थापित किया जा सकता है कि जौनपुर भी कोशल के अंतर्गत शामिल रहा होगा .कालान्तर में कोशल तथा मगध के सत्ता संघर्ष में अंततः संपूर्ण कोशल मगध में विलीन हो गया तथा मगध जैसे विशाल राजतन्त्र के अंतर्गत समाहित हुए जौनपुर को स्वयं में एक राजतन्त्र के रूप में स्थापित होनें का अवसर उपलब्ध न हो सका होगा .छठीं शताब्दी b.c. से लेकर दूसरी शताब्दी b.c.के मध्य की आहत मुद्राएँ भी जौनपुर जनपद की सीमा के निकट औडिहार नामक स्थल से प्राप्त हुई हैं . जौनपुर एवं सारनाथ (वाराणसी ) पर भी कुषाणों का आधिपत्य रहा है .इस तथ्य का प्रकाशन उत्खननों से प्राप्त मुद्राओं से हुआ है .जौनपुर से गुप्त मुद्राओं का संग्रह भी प्राप्त हुआ है जिससे यह संभावना भी बलवती दिखाई पडती है कि गुप्तकाल में यह नगर या जनपद ब्यापार विनिमय का उन्नत स्थल रहा होगा .इसमें भी शक की कोई गुंजाईश नहीं है कि यह क्षेत्र विशेष गुप्त शासन सत्ता के अंतर्गत रहा हो क्योंकि आस -पास के जनपदों से प्राप्त गुप्त कालीन अभिलेख इस धरना को पुष्ट करतें है कि यह जनपद गुप्त शासकों के शासन सत्ता के अंतर्गत रहा .यहाँ तक किपरवर्ती गुप्त शासक आदित्यसेन के देववर्णार्क लेख में गोमतीकोत्त्टक शब्द का उल्लेख मिलता है जो कि उसके राज्य क्षेत्र में सम्मिलित था .सम्भावना है कि गोमती तट पर अवस्थित यह शहर भी उसके राज्यकाल का महत्त्वपूर्ण घटक रहा हो तथा ब्यापार -विनिमय का महत्त्वपूर्ण केंद्र भी .इस सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता है कि नदियों के किनारों पर बसे प्राचीन ब्यवसायिक पडाव जल यातायात की बहुलता के चलते कालान्तर में नगर में तब्दील हो गए .




निश्चित
रूप से गोमती तट पर बसे इस नगर को प्राचीन काल में अपनी मनोहारी छटा के चलते इसका फायदा मिला हो तथा तत्कालीन भारत में जल यात्रा का यह महत्त्वपूर्ण पड़ाव रहा हो जहाँ
ब्यापार -विनिमय में संलग्न ब्यापारी अपना पड़ाव बनाते रहें हों और जिस कारण यह नगर एक प्रमुख ब्यापारिक प्रतिष्ठान के रूप में स्थापित रहा होगा .इस जनपद के सुदूरवर्ती स्थलों ,जहाँ आज भी आवागमन की बहुलता नहीं हुई है ,वहां ऐसे साक्ष्यों की उपलब्धता अवश्य हो सकती है जिससे यह निश्चित रूप से सिद्ध किया जा सके कि प्राचीन भारत में जौनपुर ब्यापार विनिमय का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था .
जारी ............................

बुधवार, 1 अप्रैल 2009

गुस्ताखी माफ़ ,मरनें की खबर ने चौपट किया दिन .(माइक्रो-पोस्ट )


आज अल सुबह जैसे ही मैं नेट पर बैठा कि ब्लागवाणी पर एक खबर थी ,मरने के बारे में ,दिल धक से कर गया .शोक संवेदना में किसी तरह उँगलियाँ चलीं ,कुछ लिख कर ऐसे तैसे मैंने पोस्ट किया .बाद में लोंगों ने मुझे बताया कि आज पहली अप्रैल थी आप बन गए मूर्ख .मैं हैरान क्या हमारी मानवीय संवेदनाएं इस कदर मर गयीं हैं कि अब हम मौत को भी मजाक बनाएं या तो हम आज भी उस आदिम युग मैं हैं जहाँ कुछ चिडियों के सर पर से उपर गुजर जाने के बाद ब्यक्ति जीवित रहे इस मोह में अज्ञानी लोग उसके रिश्तेदारों को उसकी मौत की सूचना भिजवाते थे या आज हम इतने ज्ञानी हो गएँ हैं कि मौत की खबर भी हमारे लिए केवल चंद मिनटों की खबर मात्र है .मैं समाज के बदलते इस तेवर से हैरान हूँ .
बचपन से लेकर आज तक मैं भी इस मूर्ख दिवस में शामिल होता रहा हूँ लेकिन आज तक कभी किसी को भी मैंने इस तरह 1 अप्रैल को मनाते नहीं देखा .आज दिन भर मुझे यही सवाल यक्ष प्रश्न की तरह अनुत्तरित होकर कौंधता रहा कि मेरी भावनाओं में या समाज के वर्तमान दौर में कहीं ब्यापक असमानता तो नहीं आ गयी है .