गुरुवार, 28 मई 2009

जमैथा का खरबूजा .



गर्मी का मौसम हो ,मौसमी फलों की बात हो और खरबूजे की चर्चा न हो तो बात बेमानी सी लगती है .हमारे यहाँ जब बात खरबूजे की हो और जमैथा की न हो ,यह हो ही नहीं सकता .यानि की जमैथा और खरबूजा एक दूजे से इस तरह सदियों से जुडें हैं कि इनको अलग करना नामुमकिम सा है .इधर बीच हम सभी विश्वविद्यालय में चल रही परीक्षाओं के मद्देनज़र काफी व्यस्त थे .कल थोड़ी फुर्सत हुई तो मेरे विभाग के इलेक्ट्रानिक मीडिया के सहयोगी जावेद जी का मन हुआ कि इस बार हम लोग जमैथा के खेतों में चल कर खरबूजा खायेंगे और तमाम जानकारियां भी एकत्र करेंगें .बतातें चलें कि जमैथा इस जनपद का वह ऐतिहासिक गाँव है जो कि कभी श्री हरि विष्णु जी के दस अवतारों में से एक परशुराम जी की जन्मस्थली और उनके पिता श्री महर्षि यमदग्नि की तपोस्थली हुआ करता था .यह वही स्थान है जहाँ पर पिता के आज्ञा पालन करनें हेतु श्री परशुराम जी नें अपनी माता (रेणुका ) का सर धड से अलग कर दिया था और बाद में पिता द्वारा इस कृत्य पर वरदान मांगनें पर उन्होंने तीन वर मांगे थे कि माता पुनः जीवित हो ,उन्हें यह याद नहो कि उनको मैंने (पुत्र )नें मारा था और मुझे इसका पाप नलगे .इस गाँव में आज भी माता अखंडो देवी का बहुत प्राचीन मंदिर है जो आज भी अपने चमत्कारों से लोंगों को प्रभावितकर रहा है .इस बारे में कभी विस्तृत रिपोर्ट बाद में दूंगा लेकिन नवीनतम अनुसंधानों से भी लोंगों नें यह साबित करनें का प्रयास किया है कि महर्षि यमदग्नि का आश्रम यहीं था .इस सम्बन्ध में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ आशुतोष उपाध्याय नें विस्तृत शोध प्रस्तुत किया है जिसकी चर्चा फिर कभी .
आज सुबह -सुबह ५ बजे मैं अपने सहयोगी जावेद के साथ जमैथा में खरबूजों के खेतों में था .आपको आश्चर्य होगा कि इस पूरे एरिया में रोज करीब ३०० कुंतल खरबूजा आस-पास के जनपदों में ही नहीं अपितु दूसरे प्रदेशों में भी भेजा जाता है .गाँव से सट कर गोमती नदी बहती है पर खरबूजों की सिचाई नदी के पानी से नहीं होती .



खरबूजों
की सिचाई के लिए लोंगों नें अपने निजी नलकूप लगा रखें हैं .मैंने जब इस विषय पर किसानों से पूछा तो उन्होंने बताया कि नदी के पानी से खरबूज खराब हो जातें हैं ,इसलिए हम लोग नदी के पानी से सिचाई नहीं करते .मार्च अंतिम सप्ताह तक बोए जाने वाला यह फल अब अंतिम दौर में है .इस क्षेत्र के किसानों की आमदनी का एक सबसे बडा स्रोत है .








आपको
बता दें कि सुबह -सुबह ६ बजे ही गाँव की सड़क पर खरबूजे की मंडी लग जाती है और चारो तरफ से किसान केवल खरबूजा लिए ही आता दिखाई पड़ता है .









खरीद
दारों का यह हाल है कि खरबूजा आया नहीं कि थोक व्यवसायी अपनी -अपनी शर्तों के साथ किसानों से औने -पौने दामों पर खरीद कर जल्दी भागने के फिराक में लगे रहतें हैं .ऐसे में किसान बेचारा ही ठगा जाता है .जौनपुर जनपद की तीन ऐसी फसलें हैं जिनकी मिठास देश के किसी अन्य क्षेत्र में नहीं मिलेगी उनमे मक्का ,मूली और खरबूज है .ऐसा नहीं है कि जनपद के अन्य क्षेत्रों में खरबूजे की पैदावार नहीं होती लेकिन लोंगों की नजर जमैथा के खरबूज पर ही रहती है .इसमें वह मिठास है जो अन्य क्षेत्रों के खरबूजों में नहीं है .इस क्षेत्र के लोंगों के लिए यह प्रकृति का वरदान है .इन्हें इस वरदान पर नाज़ भी है और हो भी क्यों न ,वाकई दम तो है ही इस खास खरबूजे में ।




गुरुवार, 14 मई 2009

मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना


कचहरी भी क्या खूब है ,न जाने कितनों को रुलाती व हसांती है .जीवन संघर्ष में कभी -कदा हर किसी का पाला कभी ना कभी इस कचहरी से जरूर ही पड़ता है .मेरा भी पिछले १० सालों से एक मुकदमें के चक्कर में कचहरी आना -जाना लगा हुआ है .इस आने -जाने नें मुझमें एक नया जीवन जीने का दर्शन दिया .शुरुआती दिनों में जब मैं कचहरी जाता तो यही सोचता कि आज फैसला हो जायेगा ,मगर फैसला क्या हुआ कि अंगद का पावं हो गया .आज तक वहीं लटका है ,जहाँ से शुरू हुआ था .कभी वकील बन्धुओं की हडताल ,कभी किसी वरिष्ठ वकील साहेब की मौत पर शोक सभा ,कभी जज महोदय अवकाश पर ,कभी दुसरे पक्ष के वकील साहब अनुपस्थित ,कभी अगले ने ठीक बहस के दिन और समय मांग लिया ,तो कभी कुछ -तो कभी कुछ .मुकदमें हैं की बढते ही जा रहें है एकदम सुरसा के मुह की तरह . एक बार कचहरी आते -जाते मैं बहुत निराश हो गया था .तारीख के दिन अनावश्यक रूप से वकीलों की हडताल देख कर मै गुस्से में बिफर पडा ,मेरे पास ही एक ८० साल के बुजुर्ग खडे थे ,उन्होंने मुझे जो सीख दी मुझे आज तक नहीं भूलती .उन्होंने कहा की मेरा मुकदमा पिछले ७० सालों से चल रहा है , पहले मेरे पिता जी देखते थे ,अब मैं देखता हूँ और मुकदमें कि गति देख कर लगता है मेरे आने वाले वंशज भी इसे देखेंगे. उन्होंने कहा कि मुकदमा और कचहरी तो बेटे अपनें ही हिसाब से चलेगी तुम क्यों अपनी तबियत खराब कर रहे हो .केवल यहाँ आओ ,अपनें वकील से मिलो ,फीस दो और जाओ . .मैं अवाक रह गया ,और तब से उसी अनुसार आचरण कर रहा हूँ .
कचहरीके बारे में एक यथार्थ परक कविता पूर्वांचल के प्रख्यात कवि रहे स्व.कैलाश गौतम जी नें तीन दशक पूर्व लिखा था ,आश्चर्य है की आज भी कुछ नहीं बदला .मेरे वकील भाई माफ़ करेंगे मैं यह कविता जस की तस लिख रहा हूँ -
भले डांट घर में तू बीबी की खाना
भले जैसे -तैसे गिरस्ती चलाना
भले जा के जंगल में धूनी रमाना
मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना
कचहरी न जाना- कचहरी न जाना.
कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है
कहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं है
अहलमद से भी कोरी यारी नहीं है
तिवारी था पहले तिवारी नहीं है
कचहरी की महिमा निराली है बेटे
कचहरी वकीलों की थाली है बेटे
पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे
यहाँ पैरवी अब दलाली है बेटे
कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे
यही जिन्दगी उनको देती है बेटे
खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं
सिपाही दरोगा चरण चुमतें है
कचहरी में सच की बड़ी दुर्दशा है
भला आदमी किस तरह से फंसा है
यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे
यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे
कचहरी का मारा कचहरी में भागे
कचहरी में सोये कचहरी में जागे है
मर जी रहा है गवाही में ऐसे
है तांबे का हंडा सुराही में जैसे
लगाते-बुझाते सिखाते मिलेंगे
हथेली पे सरसों उगाते मिलेंगे
कचहरी तो बेवा का तन देखती है
कहाँ से खुलेगा बटन देखती है
कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है
उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है
है बासी मुहं घर से बुलाती कचहरी
बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी
मुकदमें की फाइल दबाती कचहरी
हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी
कचहरी का पानी जहर से भरा है
कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है
मुकदमा बहुत पैसा खाता है बेटे
मेरे जैसा कैसे निभाता है बेटे
दलालों नें घेरा सुझाया -बुझाया
वकीलों नें हाकिम से सटकर दिखाया
धनुष हो गया हूँ मैं टूटा नहीं हूँ
मैं मुट्ठी हूँ केवल अंगूंठा नहीं हूँ
नहीं कर सका मैं मुकदमें का सौदा
जहाँ था करौदा वहीं है करौदा
कचहरी का पानी कचहरी का दाना
तुम्हे लग न जाये तू बचना बचाना
भले और कोई मुसीबत बुलाना
कचहरी की नौबत कभी घर न लाना
कभी भूल कर भी न आँखें उठाना
न आँखें उठाना न गर्दन फसाना
जहाँ पांडवों को नरक है कचहरी
वहीं कौरवों को सरग है कचहरी ||

सोमवार, 11 मई 2009

भारतीय शिक्षा व्यवस्था :अतीत से वर्तमान का सफ़र...3


गतांक से आगे ....
आजादी के बाद राधा कृष्ण आयोग(१९४८-४९),विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (१९५३),कोठारी शिक्षा आयोग (१९६४),शिक्षा की राष्ट्रीय नीति (१९६८)एवं नवीन शिक्षा नीति (१९८६)आदि के द्वारा भारतीय शिक्षा व्यवस्था को समय -समय पर सही दिशा देनें की गंभीर कोशिश की गयी परन्तु मैकाले द्वारा स्थापित प्रणाली को हम खारिज नहीं कर पाए .इस देश के आम लोग व स्वतंत्रता आन्दोलन के पुरोधा आजादी की लडाई क्यों लड़ रहे थे, केवल इस लिए की इस देश में अपना शासन होगा ,अपनी भाषा व संस्कृति होगी .आजादी के बाद से संभवतः अब तक भारतीय भाषाओँ विशेषतया हिन्दी को ,राष्ट्र भाषा के रूप में स्थापित करनें की अभी तक कोई गंभीर पहल नहीं की गयी परिणामत: हम आज तक एक भाषा सिद्धांत को स्थापित नहीं कर सकें हैं .एक भाषा सिद्धांत राजनैतिक ज्वालामुखी बन चुका है जो कि अक्सर अपना लावा फेकता रहता है .
भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली का दर्द किसी बुद्धिजीवी से छिपा नहीं है .शिक्षा जो कि किसी भी राष्ट्र के प्रगति का वाहक होती है यहाँ पर अब माफियाओं के हवाले हो गयी है .शिक्षा के सर्वोच्च एवं निचलों पदों पर आसीन लोंगों में भारी तादात उन लोंगों की है ,जिनका शिक्षा से कुछ भी लेना देना नहीं है .आज अधिकारी ,शिक्षक पढाना नहीं चाहते तथा भारी तादात में ऐसे विद्यार्थी हैं जो पढ़ना नहीं चाहते .सरकारी स्कूल राजनीतिक मंच बन गएँ है तो बरसाती कुकुरमुत्तों की तरह उग आये पब्लिक स्कूल बड़े कमाऊ पूत बन कर उभर रहें हैं और नव व्यवसाय के प्रमुख केंद्र बन चुके हैं .इन स्कूलों को प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों एवं आदर्शों से कुछ भी लेना -देना नहीं है .रोज़ -रोज़ बदलते पाठ्यक्रमों नें शिक्षा की ,तो किताबों के बोझ से दबे नौनिहालों को ,बेचारा बना दिया है .
प्रगतिवाद की आंधी ने शिक्षा के नैतिक मूल्य को तिरोहित कर दिया है .हर स्कूल के अपने -अपने अलग पाठ्यक्रमों ने अभिभावकों को चकर घिन्नी की तरह घुमा कर रख दिया . .वह अपनें बच्चों को कैसी शिक्षा दें ,तय नहीं कर पा रहा है .भारतीय शिक्षा व्यवस्था का स्वरुप कैसा हो ? यह बुद्धिजीवियों के समक्ष एक यक्ष प्रश्न की भांति तैर रहा है जिस पर व्यापक राष्ट्र व्यापी बहस की आवश्यकता है .इतना तो निश्चित ही है कि भारतीय शिक्षा का अतीत जितना स्वर्णिम था और जिन उद्देश्यों और आदर्शों की स्थापना के लिए हमारे मनीषियो ने इसे स्थापित किया था ,इसमें उत्तरोत्तर गिरावट के जो संकेत दृष्टिगोचर हो रहें हैं ,उसका परिणाम क्या होगा ? इसका उत्तर तो भविष्य के गर्भ में ही छिपा है .

शनिवार, 9 मई 2009

भारतीय शिक्षा व्यवस्था :अतीत से वर्तमान का सफ़र..2


गतांक से आगे ....
गुप्तकालीन भारत तक शिक्षा की प्रगति अबाध गति तक चलती रही .लौकिक साहित्य की सर्जना के लिए गुप्त काल स्मरणीय माना जाता है .शूद्रक का मृच्छ कटिक,कालिदास का अभिज्ञान शाकुंतलम ,अमर सिंह का अमरकोश इस काल की वे सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ थी ,जो की तत्कालीन भारत की समृद्ध शिक्षा व्यवस्था की ओर संकेत करती हैं हर्ष के बाद , सातवीं सदी से हिन्दी एवं अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ का प्रादुर्भाव तत्कालीन भारत की अनोखी घटना थी परन्तु शिक्षा के प्राचीन उद्देश्य एवं आदर्श तब तक बदलनें लगे थे .पूर्व मध्यकालीन भारत से होते हुए पूर्व मुग़ल कालीन भारत तक शिक्षा का पूर्व स्थापित स्वरुप लगभग कमजोर पड़ चुका था .मुगलकाल में शिक्षा का कोई पृथक विभाग नहीं था और न ही शिक्षा की कोई व्यवस्थित योजना ही तत्कालीन साक्ष्यों से परिलक्षित होती है . इस विचार को मानने में कोई विसंगति नहीं है की मुग़ल बादशाहों ने शिक्षा के महत्व को समझते हुए अपनें आपको शिक्षा से जोड़े रखा तथा अनेक विद्वानों को राजकीय संरक्षण भी प्रदान किया .परन्तु इस शासन सत्ता नें जन -सामान्य की शिक्षा की ओर कोई गंभीर पहल नहीं की फलतः शिक्षा का सम्बन्ध राजकीय शासन सत्ता धारकों से ज्यादा हो गया था .इस काल में जहाँ दिल्ली ,आगरा ,फतेहपुर सीकरी,लखनऊ ,अम्बाला ,ग्वालियर ,कश्मीर ,इलाहाबाद ,लाहौर ,स्यालकोट एवं जौनपुर मुस्लिम शिक्षा के महत्त्वपूर्ण केंद्र के रूप में स्थापित हुए वहीं बनारस ,मथुरा ,प्रयाग ,अयोध्या ,मिथिला ,श्रीनगर आदि हिन्दुओं के प्रमुख शिक्षा केंद्र के रूप में .
मुगलकालीन शिक्षा में स्त्रियों को उच्च शिक्षा की सुविधा सुलभ न थी ,केवल अपवाद स्वरुप उच्च घरानों की लड़कियों को ही उच्च शिक्षा प्राप्त थी .तकनीकी व ओद्योगिक शिक्षा के आभाव में कालान्तर में यह शिक्षा समय व समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति में प्रायः असफल ही साबित हुई .अठारहवीं से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के बीच में भारतीय शिक्षा प्रणाली हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिए ही निराशा जनक रही .ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रादुर्भाव नें भारतीय शिक्षा की प्राचीन पद्धति के उत्थान व प्रसार को व्यापक पैमानें पर प्रभावित किया .२ फरवरी १८३५ को तत्कालीन लोक शिक्षा समिति के कार्य परिषद के एक सदस्य लार्ड मैकाले नें भारतीय पारम्परिक शिक्षा को हतोत्साहित करते हुए कहा की "यूरोप के अच्छे पुस्तकालय की एक आलमारी का तख्ता भारत और अरब के समस्त साहित्य से अधिक मूल्यवान है ."यह भारत में अंगरेजी शिक्षा के प्रति पहला आधिकारिक प्रदर्शन था ,जिसे लार्ड विलियेम बैंटिंग की सरकार नें ७ मार्च ,१८३५ को अपनी मंजूरी देते हुए लागू कर दिया था .वस्तुतः मैकाले पद्धति भारत में उच्च वर्ग को अंगरेजी माध्यम से जोडनें का प्रयास था ,जिसमें निः संदेह जन साधारण को शिक्षा से वंचित करनें का आग्रह छिपा था .समय -समय पर पारित होते नियमों -उप नियमों की जंजीर में जकड़ी भारतीय शिक्षा प्रणाली अपनें मूल उद्देश्यों एवं आदर्शों से भटकती रही .
जारी ....................

बुधवार, 6 मई 2009

क्या इतना जहरीला होता है यह विषखोपड़ा.......?



मानीटर लीजार्ड यानि कि विषखोपड़ा या हम लोंगों की तरफ स्थानीय भाषा में बीतनुआ, क्या इतना जहरीला होता है कि इसके काटनें पर आदमी तुंरत मर जाये ?या ऊपर के चित्र में यह कोई इससे इतर कोई अन्य जहरीला जीव है , यह सवाल मैं अपने ज्ञानी ब्लॉग जगत के मित्रों से पूछ रहा हूँ , जो इस विषय की जानकारी रखतें हों .क्योंकि यह सवाल काफी उलझा हुआ है .विद्वानों का मानना है कि यह जहरीला नहीं है ,फिर मौतें क्यों हो रहीं है .पिछले साल वन्य जीव विशेषग्य एवं इंडियन साइंस रायटर्स एशोसियेशन के यू.पी .चैप्टर के प्रेसीडेंट डॉ अरविन्द मिश्र जी नें एक कार्यक्रम में बताया था कि यह शर्मीला जंतु मगरगोह का बच्चा है ,जो कि पूर्णतया विषहीन होता है .अब सवाल यह है कि यदि यह विषहीन है तो लोग क्यों मर रहें हैं -देखें आज का समाचार -



या तो लोग झूठ बोल रहें हैं या फिर भयवश मर रहें है या चाहे जो भी हो इससे पर्दा उठाना जरूरी है नहीं तो इस नन्हे जीव को लोग बेमौत मर डालेंगे .गाँव में इसको लेकर कई भ्रांतियां हैं,कईकिस्से कहानियाँ हैं ,तरह -तरह की चर्चाएँ है .लोग-बाग़ इसको देखते ही भयवश इसको मार डाल रहें है जल्द ही यदि इसके बारे में लोंगों के भय का निवारण न किया गया तो मुझे भय है कि लोग कहीं इस प्रजाति को विलुप्त ही
कर दें .इस बारे में आपके उत्तर की हमें प्रतीक्षा है .

मंगलवार, 5 मई 2009

भारतीय शिक्षा ब्यवस्था :अतीत से वर्तमान का सफ़र


प्राचीन भारतीय मनीषियों नें शिक्षा को सर्वाधिक महत्व प्रदान करते हुए इसे आध्यात्मिक तथा भौतिक उत्थान हेतु एक महत्त्वपूर्ण कारक माना है .प्राचीन शिक्षा ब्यवस्था के शैशव कलेवर से ही यह ध्वनित है की बगैर विद्या और ज्ञान से सम्पन्न हुआ ब्यक्ति ऋषि ऋण से मुक्त नहीं हो सकता था .प्राचीन शिक्षा ब्यवस्था का पथ ,पाथेय तथा पथ की दिशा स्पष्ट थी .ऋग्वैदिक समाज में भौतिक उपलब्धियों की अपेक्षा बौद्धिक ज्ञान की महत्ता अधिक थी .उपनिष्दों में विद्या का तादात्म्य देवलोक से स्थापित किया गया है .वृह्दारण्यक उपनिषद के १.५.१६ में वर्णित है कि देव लोक केवल विद्या द्वारा ही जीता जा सकता है .महाभारत १२.३३९.६ में कहा गया है कि विद्या के समान नेत्र तथा सत्य के समान तप कोई दूसरा नहीं है "नास्ति विद्यासमम चक्षु नास्ति सत्य समम तपः".इसे मोक्ष का साधन माना गया -"साविद्या या विमुक्तये ".चरित्र निर्माण ,ब्यक्तित्व विकास ,सामाजिक कर्तब्यों का ज्ञान एवं समाज तथा राष्ट्र के उत्थान के लिए शिक्षा एक महती आवश्यकता मानी गयी .प्राचीन विचारकों नें शिक्षा के ब्यवसायिक करण का घोर विरोध किया है .कालिदास ने अपनें महाग्रंथ मालविकाग्निमित्रम १.१७ में लिखा है कि शिक्षा के द्वारा मनुष्य आजीविका का साधन प्राप्त करता है किन्तु इसे मात्र आजीविका का साधन बनाना अभीष्ट नहीं है .तैत्तरीय उपनिषद् १.११ में वर्णित है कि आचार्य देवता होता है तथा एक आचार्य की कामना होती है की संयमी ,शीलवान और शांत स्वभाव वाले शिष्य आचार्य के पास शिक्षा ग्रहण करें ताकि आचार्य यशस्वी बनें .कालिदास नें रघुवंश ३.२९ में गुरु शिष्य सम्बन्ध को परिभाषित करते हुए "गुरुवो गुरुप्रियम "कहा है .
पूर्व वैदिक काल में शिक्षा का मुख्य पाठ्यक्रम वैदिक साहित्य का अध्ययन ही था .पवित्र वैदिक ऋचाओं के अलावा पुराण -इतिहास ,गाथा नाराशंसी ,खगोल विद्या ,ज्यामिती तथा छंद शास्त्र आदि अध्ययन के प्रिय विषय थे .इस युग में शिक्षा प्रायः मौखिक हुआ करती थी ,जिसमें पवित्र मंत्रों को कंठस्थ करनें का आग्रह हुआ करता था .प्राचीन इतिहास के प्रायः सभी समय में शिक्षा प्राप्ति के लिए "गुरुकुल पद्धति "का प्रचलन था .केवल उपनिषदों में गुरुकुल के स्थान पर आचार्य कुल का प्रयोग किया गया है ."कुल" का अर्थ बहुत सारगर्भित था ,जिससे एक परम्परा का बोध होता था .आचार्य कुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करनें वाले छात्र को "अन्तेवासी " कहा जाता था .छान्दोग्य उपनिषद् २.२३ में गुरुकुल में रहकर विद्या ग्रहण करनें वाले छात्रों को आचार्य कुलवासी,अन्तेवासी तथा ब्रहमचर्यवास जैसे संबोधनों से संबोधित किया जाता था .
वैदिक कालीन समाज में शिक्षा की सबसे महान उपलब्धि नारी -शिक्षा थी ।लोपामुद्रा ,विश्ववारा .आत्रेयी और अपाला जैसी विदुषी नारियों नें उस युग में अपनी विद्वता के झंडे गाड़ रखे थे . यह परम्परा उत्तरवैदिक काल से होते हुए महाकाब्यकाल तक कायम रही फिर उत्तरोत्तर उसमें गिरावट के संकेत दृष्टिगोचर होतें हैं .हालाँकि बौद्ध एवं जैन साहित्य ,राजशेखर की काब्यमीमांसा तथा गाथा सप्तशती आदि में अनेक विदुषी एवं कवि स्त्रियों का उल्लेख किया गया है ,जिन्होनें अनेक गाथाओं की रचना की थी परन्तु परवर्ती साहित्य से आभास मिलता है कि तत्कालीन भारत में नारी शिक्षा पर प्रतिबन्ध लगनें लगा था .यह प्रतिबन्ध शनैः -शनैः परवर्ती युगों में इतना कठोर हो गया की राजपूत काल आते -आते स्त्री शिक्षा बिलकुल बंद होने के कगार पर पहुंच गयी थी .
जारी .........