शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

कालो न यातो ......

कितना सही कहा गया है --कालों यातो-वयमेव याता. अर्थात समय नहीं जाता हम लोग जाते हैं.यह जीवन कीसचाई है इससे हम मुह नहीं मोड़ सकते.इतनी खरी-खरी बात अभी नव वर्ष की पूर्व संध्या पर आयोजित एक पार्टी में अपने समय की एक मशहूर हस्ती नें, नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनाओं सहित हम लोंगों के साथ कही.मुझे अचानक यह बात सुखद मौके पर बड़ी अटपटी सी लगी ,माहौल बोझिल लगनें लगा लेकिन बाद में मैंने सोचा तो लगा यार बात तो सौ टके की सही है.प्रतिवर्ष नव वर्ष का इन्तजार करते-करते हम यह नहीं सोचते कि हम कितनें बरस के हो गये.और हर साल हमे क्या दे रहा है केवल नई-नई चुनौतियाँ -नये -नये समीकरणों के साथ तालमेल,नई जिम्मेदारियां.यानि कि अब शंख वाले-पंख वाले दिन कहाँ गये.उन दिनों, कल की कभी चिंता नहीं होती थी,केवल और केवल चिंता यह होती थी कि नववर्ष की पूर्व संध्या और नव वर्ष का दिन कहाँ-किन मित्रों के साथ मनाना है.अब तो लगता है इतनी जल्दी-जल्दी क्यूँ रहा है यह नया साल.साल दर साल बीत रहे हैं और हम एक सुखमय समय की प्रतीक्षा में चुक रहे है जो मृगतृष्णा के रूप में है-नहीं मिल रही है.पार्टी में एक लगभग सत्तर बरसके एक बुजुर्ग साम्यवादी चिन्तक नें सालों-साल के पुरानें वर्षों का आकलन करते हुए कहा कि -खुदा तो मिलता है इंसान नहीं मिलता -ये चीज वो है कि देखी कहीं-कहीं मैंने। - ,यदि राष्ट्रीय परिदृश्य में देखा जाय तो भी लगता है कि इस वर्ष नें भी आम आदमी को खुशी कम- गम ज्यादे दिए.आने वाला साल क्या इसकी भरपाई कर पायेगा -ईश्वर से यही कामना है कि सबके लिए आने वाला कल-नव वर्ष, खुशियों की सौगात लेकर आये
वर्ष नव-हर्ष नव -उत्कर्ष नव के उदघोष के साथ पंडित रूप नरायण त्रिपाठी जी की इन लाइनों को प्रस्तुत कर रहाहूँ---
मैं नया गीत लाया तुम्हारे लिए,
मैं नया मीत लाया तुम्हारे लिए,
साथियों चीर कर रात की कालिमा ,
मैं सुबह जीत लाया तुम्हारे लिए।

भोर की बांसुरी गीत छलका गयी,
जिन्दगी में नई जिन्दगी गयी,
फूल की डबडबाई हुई आँख में ,
रात के आंसुओं को हंसी गयी।


नव वर्ष आप सब को मंगल मय हो ,अभिमंत्रित शुभकामनाओं सहित ...



रविवार, 26 दिसंबर 2010

हम भ्रष्टन के और सब भ्रष्ट हमारे .......

काफी समय से इस अंतर्जाल पर कुछ लिख नहीं पाया-दूर रहा .ऐसा नहीं था कि मैं अपनें पसंदीदा पोस्ट्स या लेखकों को नहीं देखता या पढ़ता था -बस संशोधन यही था कि न तो उस पर अपनी टिप्पणी कर पाया और न ही अपने ब्लॉग पर नव लेखन .
यह बीत रहा साल तो घोटालों और महाभ्रष्टों की भेंट चढ़ गया. घोटालों और भ्रष्टों की कहानी राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया की सुर्ख़ियों में रही . कुछ ऐसी ही अकथ कहानी, भ्रष्टाचार की ,हमारे प्रदेश में भी रही जिसकी कहीं रही चर्चा भी नहीं हुई.साल के आख़री कई महीनें उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव की भेंट चढ़ गये .जुलाई से शुरू हुई कहानी अभी ब्लाक प्रमुखों के चुनाव से पिछले २२ दिसम्बर को समाप्त हुई है .पहले दौर में प्रधानी-बी.डी.सी.सदस्यी ,जिला पंचायतसदस्यी,फिर जिला पंचायत अध्यक्ष और अंततः ब्लाक प्रमुखी.
सामाजिक परिवर्तन के नाम पर इन चुनावों में भ्रष्टाचार की जो गंगा बही है ,अफ़सोस है इसकी चर्चा मीडिया के राष्ट्रीय पन्नों पर तो छोड़िये ,आंचलिक पन्नों पर भी नहीं हुई. सीधे-सीधे लाखों रूपये एक-एक वोट पर खर्च किये गये ,जिसकी कहीं चर्चा तक नहीं हुई.देश का अपना सर्वप्रिय इलेक्ट्रानिक मीडिया भी जो सनसनीखेज खबरों को प्रस्तुत करनें में ही अपने समय को जाया करता है वह भी खरबों के इस खबर की अनदेखी कर गया .तो क्या अब यह मान लेना चाहिए की भ्रष्ट होना ही हम सब की नियति हो चली है??। ग्रामीण विकास से जुड़े इन चुनावों नें भ्रष्टाचार की जो प्रस्तुति दी है इससे यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन प्रदेशों में विकास के लिए आने वाले समय में क्या कुछ होंनें वाला है.इन पंचायत चुनावों में धन-बल-मुर्गा- दारू का जो दौर चला है वह वर्णनातीत है-अच्छे-अच्छों को पसीना गया.परिणामतः विकास के लिए जिन्हें होना चाहिए था वे नहीं हुए-जिन्हें नहीं होना चाहिए था वे छा गये. अब सब होंगे मालामाल और मतदाता -गरीब जनता होगी बेहाल.अफ़सोस जनक यह है कि मतदाताओं की कुम्भकर्णी निद्रा कबटूटेगी.जिला पंचायत , ब्लाक प्रमुख के चुनाव, निर्वाचित सदस्यों द्वारा किये जाते हैं -असली खेल यहीं से शुरू होता है .यदि भ्रष्टाचार पर कुछ अंकुश लगाना है तो इन चुनावों को भी सीधे जनता से जोड़ना होगा.इसका सबसेदुखद पहलू यह है कि भ्रष्टाचार की यह महामारी अब सीधे ग्रामीणों तक पहुचनें लगी है जो कि समाज और देश के लिए कत्तई शुभ संकेत नहीं है.अभी कुछ वर्षों पूर्व तक ऐसे लोग सामाजिक रूप से रोटी और बेटी दोनों रिश्तों से दूररखे जाते थे लेकिन अब ये सर्वप्रिय और सर्वमान्य हो चले हैं.वे लोग जो एक लम्बे समय से इन भ्रष्टाचारियों केविरुद्ध संघर्ष कर रहे थे वे अब नेपथ्य में हैं,बेचारे बन गये हैं.कविवर डॉ श्री पल सिंह क्षेम की इन लाइनों के साथअपनी पोस्ट समाप्त करता हूँ---
मन की गांठे बंधी पहले खोलो ,
प्यार से पहले मन को तो धो लो ,
देश को फूल देना कठिन है,
पहले आंगन में ही फूल बोलो ।
भाव मन के जो प्रतिकूल होंगे,
पथ में शूल ही शूल होंगे ,
देश को फूल तब दे सकोगे,
अपनें आंगन में जब फूल होंगे।


शनिवार, 15 मई 2010

भुतही कहानियों के बीच छिपा एक इतिहास (एपार जौनपुर -ओपार जौनपुर )

बचपन से ,जौनपुर जाते -आते एक वीरान इमारत को देखता-समझने की कोशिश करता लेकिन बात भूतों -प्रेतों पर आकर टिक जाती. सन १३६१ इस्वी के बाद जौनपुर में शर्की वंश के राज काल में बनी इमारतों में "बारादुअरिया " भी है लेकिन इतिहास के पन्नो में वास्तुकला के इस धरोहर को क्यों स्थान नहीं मिला मुझे समझ में नहीं आ रहा.जौनपुर -लखनऊ राज मार्ग पर जौनपुर शहर के पूरब सड़क से लगभग ३०० मीटर पर यह " बारादुअरिया " स्थित है. कहते हैं यह राजवंश की रानियों का स्नानागार था या फिर सदानीरा गोमती से सटा होने के कारण रनिवास की रानियाँ यहाँ प्राकृतिक छटा का अवलोकन करने आती थी .जो भी हो लेकिन आश्चर्य है कि जौनपुर के इतिहास लेखन में भी इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
दन्त कथाओं में कहा जाता है कि इस भवन के अन्दर बीचो -बीच एक बहुत गहरा कुआँ हुआ करता था और भवन के गुम्बज के बीचो-बीच सोनें का एक घंटा बंधा था, जिसे निकालने के चक्कर में एक चोर मगरगोह की मदत से घंटे तक पहुच गया था लेकिन घंट का वजन मगर गोह नहीं सभाल सका और घंट समेत कुएं में जा गिरा था,कुएंको इसके बाद समाप्त कर दिया गया। इस भवन में नाप-जोख कर कुल बारह दरवाजे हैं शायद इसीलिये इसे बारादुअरिया कहा गया.दंतकथाओं में भूत-प्रेतों से जुडी इतनी कहानियाँ इस कारण लोग इस तरफ आनें से कतराते रहे ,यहाँ अब केवल सांपो और मगर गोह का ही राज है। इस बारे में फिर कभी विस्तृत रपट प्रस्तुत करूंगा अभी तो इसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का अध्ययन मैंने शुरू ही किया है.जो भी हो लेकिन वास्तु कला का बेजोड़ नमूना यह भी है जिसका अवलोकन आप चित्रों में भी कर सकते हैं-
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(सभी चित्र -जावेद अहमद )

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

मित्र मिलन की अजब कहानी..........

पुरानी फ़िल्मी कहानियों में मिलन के लिए अक्सर कुम्भ मेले का सदुपयोग होता था लेकिन अब ब्लॉग-जगत के महाकुम्भ नें मुझे मेरे मित्र से मिला दिया.मैं बात कर रहा हूँ अपनें सहपाठी मित्र अभय तिवारी की,जो कि मेरे साथइलाहाबाद विश्वविद्यालय के डायमंड जुबिली हास्टल में १९८५ से १९८९ तक साथ रहे थे.हम दोनों का एक ही सत्र में हास्टल में प्रवेश, साथ-साथ नंग-धडंग रैगिंग -साथ ही साथ -पढाई ,-लड़ाई वामपंथ-दक्षिण पंथ के मुद्दों पर बहस आदि-आदि.अभय वामपंथी विचारधारा के सजग प्रहरी थे और मैं दक्षिणपंथी.दोनों के अलग-अलग मत -तर्क लेकिन कई एक मुद्दों पर समानता के चलते मित्रता कायम रही .१९८९ से जो हम बिछड़े तो अब २०१०में पूरे २१ वर्षों बाद ,ब्लॉग पर मिले. हालाँकि मैं अभय के ब्लॉग से परिचित था लेकिन ब्लॉग पर लगी हुई उनकी तस्वीर ऐसी है कि स्पष्ट नही होता था.होली पर हमारे एक हास्टल के सीनियर का शुभकामना फोन आया था ,बात -चीत चल रही थी मैंने कहा क्या कर रहे हैं सर , उन्होंने कहा कि अभय का ब्लाग पढ़ रहा हूँ .मैंने कहा कौन अभय ?फिर उन्होंने जब बताया तो मैं तुरंत अभय से बात करनें को उत्सुक हो गया लेकिन अफ़सोस उस समय उन्हें अभय का फोन नंबर न मिल पाया . होली पर ही हमारे बड़े भइया डॉ अरविन्द मिश्र जी घर पर थे मैंने इसका जिक्र उनसे किया ,उन्होंने हैरानी जताई कि अभय से तुम पूर्व परिचित हो,उन्होंने कहा कि मेरी तो कई बार अभय से बात हुई है. उन्होंने तुरंत अभय का मोबाईल नम्बर डायल कर स्वयं बात की फिर मेरी बात कराई.अभय नाम लेते ही पहचान गये ,भूली बिसरी यादें ताज़ा हुई....और बातों का सिलसिला चल पड़ा.
फिल्म निर्माण से जुडा जान कर मैंने अभय द्वारा निर्देशित कुछ फिल्मों को देखनें की इच्छा प्रकट की जिसे स्वीकार कर अभय नें अपनी
लघु फिल्म -'सरपत' पोस्ट से मेरे पास भेज दी ,जिसका आज मेरे विभाग में चल रहे एक कार्यशाला के दौरान प्रदर्शन किया गया.नई दिल्ली से आये हुए मॉस-कम्युनिकेशन और इलेक्ट्रानिक मीडिया के वरिष्ठ प्राध्यापक श्री अभिषेक श्रीवास्तव,प्रतिष्ठित फोटोग्राफर जव्वार हुसैन और हमारे विभाग के सभी प्राध्यापकों और विद्यार्थियों के समक्ष सरपत प्रदर्शित हुई .फिल्म सभी को बेहद पसंद आयी और बाद में इस फिल्म के विविध पहलुओं पर परिचर्चा भी आयोजित हुई .....










(चित्र जावेद अहमद)

रविवार, 4 अप्रैल 2010

क्या परशुराम क्षत्रिय विरोधी थे ???


बताया जाता है कि हमारे जौनपुर से परशुराम जी का नाता रहा है ,इन्ही के पिता जी ऋषि यमदग्नि के नाम पर ही जौनपुर कभी यमदाग्निपुरम से होते हुए जौनपुर हो गया. आज भी इनकी माता जी का मंदिर यहाँ विराजमान है.जौनपुर के स्थानीय निवासी और सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी में पुराण -इतिहास विभाग के पूर्व आचार्य डॉ आशुतोष उपाध्याय नें हाल ही में यह पुस्तक लिखी है, जिसमें परशुराम जी से जुड़े विविध पहलुओं पर व्यापक प्रकाश डाला गया है .एक साथ परशुराम जी पर इतनी जानकारी संभवतः ही किसी पुस्तक में एक स्थान पर हो.इस पुस्तक के प्रणयन के समय विद्वान लेखक की दृष्टी ऐतिहासिक ,पौराणिक और सांस्कृतिक पक्षों पर विशेष केन्द्रित रही है और अपनें मत के समर्थन में आपनें कई एक पुराणों और श्री वाल्मिकी कृत रामायण आदि का भी सहारा लिया है.भाषा सरल और शैली प्रवाहपूर्ण है इस लिए यह कृति संग्रहणीय बन गयी है.
आज तक सर्व -विदित व्याख्या यह रही है कि परशुराम जी क्षत्रिय विरोधी थे ,लेकिन इस ग्रन्थ के लेखक ने संदर्भों के आधार पर इससे असहमति जताई है .नीचे चटका लगा कर आप स्वयं पढ़ सकते है -


बुधवार, 24 मार्च 2010

कुमारी का टोटा ....(एक माइक्रो पोस्ट)

धर्म से ओत-प्रोत हमारे इस महान देश की अजब परम्पराएँ और चलन हैं.साल भर हर मुद्दे पर जिनका निरादरकरो -उसी का एक दिन विधिवत पूजन-अर्चन और नमन. आज का दिन हम लोंगो की तरफ कुमारी कन्याओं कादिन होता है.श्री राम नवमी के दिन सुबह-सबेरे हमारी तरफ ही नहीं, मैं समझता हूँ पूरे हिन्दी भाषी राज्यों मेंकुमारी कन्याओं का विधिवत पूजन-अर्चन के साथ भोजन कराया जाता होगा .इधर साल दर साल मैं महसूस कररहा हूँ कि बालक -बालिका अनुपात स्पष्टतया दृष्टिगोचर भी होने लगा है.कई लोंगो से पूछनें पर पता चला कि कीसंख्या में हर जगह कुमारियाँ नहीं मिल पायीं.घर-घर पूजन -भोजन होना है ,मुहल्ले -बस्तियों में कई घर ऐसेमिल जायेंगे जहाँ कुमारी कन्याएं ही नहीं है ,तो ऐसे में कैसे हो घर-घर पूजन
ऐसा लगता है कि समाज की विकृत सोच- कन्या भ्रूण हत्या और पुत्रवान भव की परम्परा नें अब अपना रंगदिखाना शुरू कर दिया है .इस सोच नें सामाजिक ताने-बाने का कितना नुकसान किया इसका आकलन सहज नहींहै .काश आज के दिन जितना सम्मान पूजन हर घर इन कन्याओं का होता है वह साल के सभी दिनों में कायमरह जाए? यह सदविचार हर-एक के मन में हर दिन बना रह जाय?? आज के दिन शक्ति की अधिष्ठात्री से यही मेरी विनम्र प्रार्थना है........

शनिवार, 20 मार्च 2010

गौरैया आयी है .......


शहरों में,समाचार पत्रों में और ब्लागजगत में भी आज गौरैया चिंतन छाया रहा .घरों में फुदकने वाली गौरैया का आज दिन जो था .दिन-भर विश्वविद्यालय से लेकर शहर तक कि पर्यावरण विदों से मुलाकात हुई,इसी विषय पर बात हुई और अंततः कमोबेश बात इसी बात पर खत्म हुई कि विकास की सतत प्रक्रिया का नकारात्मक पक्ष ही इसके लिए जिम्मेदार है .
लेकिन एक राज की बात बताउं,मुझे अपने पर बड़ा गर्व भी हो रहा था वह इसलिए कि बचपन से अब तक, मेरे घर में एक साथ विभिन जगहों पर एक-दो-तीन नहीं बल्कि कई दर्जन गौरैया रह रहीं हैं.जब से जाननें-समझनें की समझ विकसित हुई तब से अपनी भोजन की थालियों के आस-पास उन्हें मंडराते देखा है. अभी -अभी शाम को मैंने इनकी गिनती की ,अभी भी ये १४ की संख्या में घर में हैं.हम सब के यहाँ परम्परा से, एक लोक मत इस चिड़िया को लेकर है वह यह कि -जिस घर में इनका वास होता है वहाँ बीमारी और दरिद्रता दोनों दूर-दूर तक नहीं आते और जब विपत्ति आनी होती है तो ये अपना बसेरा उस घर से छोड़ देती है .
अब नीचे देखिये मेरे घर में डेरा जमायी हुई इन गौरैया चिड़ियों को , घोसला के साथ , सचित्र झांकी ...................














बुधवार, 17 मार्च 2010

राजा श्री राम चन्द्र जी और उनके पांच हजार सैनिक ....


पिछले दिनों मैं अयोध्या में था और अपने प्रवास की बात कर रहा था .श्री राम जन्मभूमि परिसर में सुरक्षा के लिए लगभग पांच हजार जवान लगे हैं.श्री राम लला के दर्शन के दौरान मैंने अपनें साथ गये एक पत्रकार मित्र से कहा कि वाह ,क्या चाक-चौबंद व्यवस्था है,वाकई यहाँ तो परिंदा भी पर नहीं मार सकता.मेरे पत्रकार मित्र नें कहा कि कि अब राजा केलिए इतने सेवक-सैनिक तो रहेंगे ही.उनके कहने का अंदाज़ ऐसा था कि मुझे हंसी आ गयी .मैंने उनसे कहा कि यह आप क्या कह रहे हैं .उन्होंने कहा मैं सही कह रहा हूँ यहाँ सब के सब श्री राम लला की सेवा में ही तो है,अब राजा हैं तो सेवक होने चाहिए न.बिना सेवक के कैसा राजा।
मुझे कनक भवन में बहुत शांति मिली . इसी भवन में सीता जी निवास करती थी,जो कि रानी कैकेयी द्वारा उन्हें मुंह - दिखाई में दिया गया था.सुरक्षा कारणों के चलते अन्य
कहीं भी फोटोग्राफी की अनुमति नहीं थी,लेकिन कनकभवन में मौका मिला -कुछ चित्र हम ले आये--





सोमवार, 15 मार्च 2010

तमसा तट से............




इधर कई दिनों से मैं फैजाबाद एवं राजा श्री राम चन्द्र जी की नगरी अयोध्या में रहा .यह क्षेत्र तो वैसे हमारे प्रिय श्री अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी जी का है पर उनके इलाके की खबर मुझे देनी पड़ रही है . व्यस्तता इतनी थी कि ब्लाग जगत से न चाहते हुए भी दूर रहना पड़ा .यहाँ बाकी सब तो पूर्ववत ही लगा लेकिन तमसा नदी का हाल देख मन बहुत दुखी है, वह आज विलुप्त होने के कगार पर है और कोई उसकी सुधि लेने वाला नहीं है..मैं उसी तमसा की बात कर रहा हूँ जिसके तट पर कभी श्री राम चन्द्र जी नें एक रात बनवास प्रारंभ होने पर बिताई थी .इस नदी का उल्लेख गोस्वामी तुलसी दास जी नें श्री राम चरित मानस के अयोध्या काण्ड में दोहा संख्या ८४ में इस तरह दिया है-
बालक वृद्ध बिहाई गृह लगे लोग सब साथ|
तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ||
इस नदी की वेगवती धाराओं का उल्लेख श्री वाल्मीकि कृत रामायण के अयोध्याकाण्ड में पैतालिसवें और छियालिसवें सर्ग में भी पढने को मिलता है क़ि किस तरह नदी की तिरछी धारा राघव को बन गमन हेतु बाधा बन रही थी.
इन चित्रों में, इस विलुप्त होती ऐतिहासिक नदी का हाल देखिये.....










इस समय में ब्लाग जगत से दूरी के लिए अफ़सोस है,बस एक दो दिनों में फिर से नियमित हो पाउँगा ...
बाकी अयोध्या से कुछ और.. अगली पोस्ट में.......

सोमवार, 8 मार्च 2010

चैत मास की अमराई में चैता-चहका और चौताल.....


प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर को जीवित रखने और सुरुचिपूर्ण संगीत को बढ़ावा देने के उद्देश्य से हमारे घर पीढी दर पीढी से प्रतिवर्ष होली के आठवें दिन आयोजित किये जाने वाले लोक-संगीत समारोह "आठो -चैती " में इस चैत मास की अमराइयों में रविवार की देर रात तक लोक संगीत कारों की स्वर लहरियां गूंजती रहीं,लोग आनंदित होते रहे
इस संगीत समारोह में लोक संगीत की विलुप्त हो रही विधाओं -फगुआ,चहका,चैता,बेलवैया,उलारा,चौताल ,कहरवा,झूमर और देवी गीत का उत्क्रिस्ट प्रदर्शन दूर -दूर से आये हुए करीब पचासों कलाकारों द्वारा किया गया

इस विधा में प्रवीण हमारे जनपद के पुराने गवैया प्रज्ञा चक्षु बाबू बजरंगी सिंह और पंडित नागेश्वर चौबे नें अपनी प्रस्तुतियों से श्रोताओं को भाव-विभोर कर दिया
फागुन के दिन चार की, अब हम लोंगों के यहाँ से विदाई हुई है.पूरे पूर्वांचल में फाग गीतों का आयोजन चैत अष्टमी तक होता है फिर ढोल और ढोलकिया दोनों अगले बरस के इन्तजार में मौन हो जाते हैं
बचपन में जब से जानने की समझ विकसित हुई यह आयोजन देखता रहा हूँ,साल दर साल बीतते रहे ,परम्पराएँ अन्य स्थानों पर दम तोडती रहीं,कार्यक्रम समाप्त होते रहे लेकिन इन परम्पराओं को हम सब छोड़ पाए.हमारे यहाँ स्व. परदादा, स्व.दादा , स्व.पिता जी और फिर हम लोंगो तक यह सिलसिला बदस्तूर कायम है. हर वर्ष हमारे घर के सभी सदस्य और परम्परागत रूप से जितने भी परिवार ,गायक इस आयोजन से जुड़े है सब के सब इस निश्चित तिथि को बिना बुलाये ,बिना किसी निमंत्रण- मनुहार के अपनें आप उपस्थित होतें हैं , चाहे कितनी भी व्यस्तता क्यों हो , आयोजन वाले दिन अष्टमी को फिर हमारे घर पर ही, बड़े आम के बगीचे में, दाल-बाटी- चोखा के महाभोज के साथ ,अमराइयों की भीने सुगंध के बीच सभी लोक कलाकार, भारी भीड़ के साथ अपनी स्वर लहरियों से पूरा इलाका गुंजायमान करते है
इस आयोजन की कुछ झलकियाँ आपके लिए भी---
लोक कलाकारों का सम्मान अंगवस्त्रम के द्वारा ॥
फाग-गीत गायन के सम्राट प्रज्ञा चक्षु बाबू बजरंगी सिंह ,गायन मुद्रा में ।

इन्ही के स्वर में सुनिए एक विलुप्त फाग-गीत ...




और अब फाग-गीत अध्याय का समापन, नहीं- नहीं मध्यांतर हुआ ,अगले बरस फिर मिलेंगे फागुन में...
लिख दिया ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आये ..................