सोमवार, 31 जनवरी 2011

आये जिस-जिस की हिम्मत हो ....

माफ़ कीजियेगा मैं किसी भी प्रतिबंधित या गैर प्रतिबंधित संघटन का न तो सदस्य हूँ और दूर-दूर तक न ही किसी राजनीतिक दल का प्राथमिक सदस्य.लेकिन पढ़े-लिखों के बीच पाकर यह गौरव जरूर होता है मैं भी एक जागरूक-सामाजिक और देश के विषय में सोचनें समझनें वाला सजग प्रहरी हूँ.प्रख्यात दार्शनिक देकार्त के शब्दों में "मैं सोचता हूँ- इसलिए मैं हूँ"की अवधारण में विश्वास रखता हूँ..
आज कल एक (कु)प्रथा समाज में चल पड़ी है वह यह कि जो बाप-दादा-पुरखों नें नही किया या सदैव मना किये उसी को हमें करनें में सर्वाधिक सुख या आत्मसंतोष की प्राप्ति हो रही है . समाज में हो रहे बदलाओं को प्रतिविम्बित करती एक चर्चित रचना जिसे आप पढ़ चुके हैं--
नजरिये हो गए छोटे हमारे ... बौने बड़े दिखने लगे हैं! में कवि के विचार कितनें ग्राह्य हैं।
इधर के निरंतर बीतते महीनों-वर्षों में नैतिक अनाचार -दुराचार की जो घटनाये इस सभ्य समाज में निरंतर वृद्धि की ओर अग्रसर है वह देश के लिए बेहद शर्मिंदा करनें वाली घटनाये है.कभी-कभी लगता है नैतिक मूल्यों के मामलों में हमसे भले हम सभी के पूर्वज ही थे जो तुरंत दंड का प्राविधान बनाये रखे थे ,जिस भय से ही लोग अंकुश में रहा करते थे.कम से कम आज के प्रगतिशील-सभ्य और पढ़े लिखों की तरह बेबस तो नहीं थे.
बचपन में एक कहानी सुनी थी कि एक राजा नें अपनें जीवन के अंतिम समय में अपनें चारो पुत्रों को बुलाया और कहा कि मेरे बाद तुम हर दिशा में जाना मगर दक्षिण दिशा में मत जाना .तीन पुत्र तो मान गये पर सबसे छोटे नें वह सलाह नहीं मानी और परिणामतः दुखी हुआ.मतलब यह कि किसी को भी सही राह नहीं भा रही है,लोग जाना चाह रहे हैं-सबसे आगे पहुंचना चाह रहे है लेकिन गति पर नियंत्रण नहीं है -कौन सी दिशा है -पथ सही है या नहीं -पता नहीं है ।मुझे लगता है कि काफी कुछ समस्याएं तो संयुक्त परिवारों के विघटन से भी हो रही है.एकल परिवार वालों को को तो यही नहीं पता कि उनका पड़ोसी कौन है फिर समाज और देश तो बड़ी बात है.
समाज में व्याप्त धूर्तता-मक्कारी -पाखंड-दुराचार-भ्रष्टाचार-शोषण की जब तक पूर्ण तिलांजलि नहीं दी जायेगी तब तक भारत महान नहीं बनने वाला ।

और अब चलते-चलते कवि पंडित अटल बिहारी बाजपेयी जी की एक रचना जो कि
मेरी पसंद में से एक है --
यमुना कहती कृष्ण
कहाँ है?सरयू कहती राम कहाँ है?
व्यथित गण्डकी पूछ रही है ,चन्द्रगुप्त बलधाम कहाँ हैं?

अर्जुन का गांडीव किधर है,कहाँ भीम की गदा खो
गयी?
किस कोनें में पाञ्चजन्य है,कहाँ भीष्म की शक्ति सो गयी?

अगणित सीतायें अपहृत हैं ,महावीर निज को पहिचानों ,
अपमानित द्रुपदायें कितनी,समरधीर शर को सन्धानों|

अलक्षेन्द्र को धूलि चटाने वाले पौरुष फिर से जागो,
क्षत्रियत्व विक्रम के जागो,चणकपुत्र के निश्चय जागो|

कोटि-कोटि पुत्रों की माता अब भी पीड़ित ,अपमानित है ,
जो जननी का दुःख न मिटाए उन पुत्रों पर भी लानत है|

लानत उनकी भरी जवानी पर जो जो सुख की नींद सो रहे,
लानत है, हम कोटि-कोटि हैं,किन्तु किसी के चरण धो रहे|

एक हाथ में सृजन ,दूसरे में हम प्रलय लिए चलतें हैं,
सभी कीर्ति -ज्वाला में जलते ,हम अंधियारे में जलते है|

आँखों में वैभव के सपनें ,पग में तूफानों की गति हो,
राष्ट्र भक्ति का ज्वार न रूकता,आये जिस-जिस की हिम्मत हो||



रविवार, 9 जनवरी 2011

ठंड से बचने के जुगाड़ में जूझती जिन्दगी ........


समय-समय पर जीवन को जीने का अंदाज़ और ढंग परिस्थितियों के हिसाब से कैसे बदल जाते है,अचानक आयी समस्याओं से हम कैसे दो चार हो जाते हैं -इसका सहज अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता . इस समय समूचा पूर्वांचल हाड़तोड़ ठंड के दौर से गुजर रहा है -ठंड से बचने के जुगाड़ में लोग परेशान हैं . सरकारी और गैर सरकारी दोनों स्तर पर लोग-बाग सक्रिय हैं ,गरीबों के लिए तमाम उपाय जैसे अलाव -कम्बल आदि की व्यवस्था की जा रही है फिर भी प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं.सबसे ज्यादा परेशानी उन बेचारों के लिए है जिनके तन पर तो गर्म कपड़े हैं और ही उनमें खरीदने की ताकत है .हालात यह है कि बीते दो दिनों में ठंड से पूर्वांचल में सौ से ऊपर लोग असमय ,ठंड के चलते काल कलवित हो चले हैं .अस्पताल में बच्चों और बुजुर्गों की दवा के लिए लाइन लगी पड़ी है.जौनपुर में भी पारा दो-तीन के आस-पास घूम रहा है.जनजीवन ठप.यदि यही हाल दो तीन दिन और रहा तो जान-माल की व्यापक क्षति होना सुनिश्चित है.यहाँ के लोंगो को इतनी ठंड की आदत कभी नहीं रही, और ही इस आपदा प्रबंधन के लिए लोग तैयार रहते हैं.यहाँ के लोंगो को लगता है कि ठंड तो पहाड़ वाले लोंगों के लिए है हम मैदान वालों को कहाँ ठंड परेशान करती है.अब पुरनियों (बुजुर्गों) का कहना है उनकी जानकारी में कि ऐसी शीतलहर कभी नहीं पडी .ठण्ड से बचने की जुगत में देखिये कैसे-कैसे जतन हो रहे हैं---



(
सभी चित्र- श्री आशीष श्रीवास्तव )