गंवई शादी के बारे में अपने सतीश भाई तो लिख ही चुके हैं ,आज मेरा भी मन हो चला है कि इस विषय पर एक पोस्ट ठेल ही दूँ.
मई-जून - जुलाई में शादियों की बात-पुरानी हुई अब तो ठंड के महीनों में केवल खरमास को छोड़ रोज शादियाँ हो रही हैं-लगता है अभी लिंग अनुपात यथार्थ में परिलक्षित नहीं है-वर्ना शादी के लिए लडकियाँ ढूढ़ते रह जायेंगे. इन शादियों वाले दिनों में गांव और शहर में शादियों के चलते एक तरफ कान फोडू संगीत तो दूसरी तरफ यातायात जाम के चलते लोग त्रस्त हो जाते हैं ,शहर की शादियों में तो गनीमत है कि एकाध घंटें में आप को रात्रिभोज के साथ फुरसत मिल जायेगी लेकिन गांव जाने वाली अधिकांश शादियों में एलीट वर्ग झेल जाता है .अगर आपके पास अपना निजी वाहन नहीं है तो फिर आप रात्रि जागरण करें- गंवई बकवास सुनें या विवाह मंडप में बैठ कर महिलाओं की गालियाँ सुनें क्योंकि आपके लिए अलग से वाहन की व्यवस्था नहीं है. यह अलग बात है कि सुबह की जलेबी-छोला-भटूरा और फिर कन्या पक्ष की तरफ से मिलनें वाले नोट की विदाई के चक्कर में भी अधिकांश लोग सुबह से पहले टस-मस नहीं होते।
अभी पिछले ही दिनों एक सज्जन जो कभी भी गांव की शादी में शिरकत नहीं कर पाए थे ,महानगर से गाँव की शादी में भाग लेने आये -अति उत्साह में थे.रात में बारात में जल्दी आइटम (मिठाई-चाट-भोजन) लेने के चक्कर में सूनसान रास्ते में नशे में धुत ड्राइवर सड़क के किनारे वाहन समेत एक अर्ध भरे तालाब में जा घुसा,जान बचाने की फिक्र में कीचड़ में लत-पथ बेचारे किसी तरह बाहर निकले तो पास के कुछ मनबढ़ लडकों नें चोर-चोर कह कर उनकी पिटाई कर दी -मोबाईल नेटवर्क बाधित होने से हम सब से मदद भी नहीं मांग पाए-बारात का स्थल काफी दूर था .हम लोग भोजन करते समय तक उनका इन्तजार करते रहे,पता चला की अभी वे नहीं आये है.हम लोंगों के जाने के बाद देर रात बेचारे बन पहुंचे थे कि बारातियों और घरातियों में आर्केस्ट्रा में नाच (-मुन्नी बदनाम ) को लेकर मार पीट हो गयी -खुराफाती तो भाग लिए पुलिस आने पर ,यही बेचारे पकडे गये फिर पुलिस का चक्कर-थाने में बैठा दिया गया .सुबह तक धुर गंवई शादी में भाग लेने का चस्का सदा सर्वदा के लिए उतर चुका था. गांव में कुछ भाई लोग कई चीजों को लेकर काफी उतावले रहते हैं जैसे उनसे कुछ छूट न जाये .आइटम एवं आउटिंग के चक्कर में जल्दी लगी रहती है -रास्ते भर ड्राइवर से जल्दी चलो-जल्दी चलो की रट लगाये रहते है ,इस चक्कर में अक्सर गाडी कहीं न कहीं खराब होती है या फिर दुर्घटनाग्रस्त .
अब पिछले कई सालों से एक शौक और गांवों में लहलहा रहा है वह है असलहों से द्वारपूजा के समय होने वाली फायरिंग.प्रशासन द्वारा कितनी भी चेतावनी दी जाय कोई फरक नहीं .वैध-अवैध असलहों का जखीरा खूब दीखता है इन गंवई शादियों में .लोग बाग़ इसे पुरुषों के श्रृंगार के रूप में इसे परिभाषित भी बखूबी करते हैं.रोज कोई न कोई हादसा हो रहा है लेकिन होने वाली घटनाओं से कोई सबक नहीं ले रहा है. कुछ लोग अनायास ही लड़की वाले के यहाँ इस फ़िराक में पहुंच जाते हैं कि क्या कुछ खाने -पीने को बन रहा है,देर क्यों हो रही है,किसी से परिचय कर लिया जाय ताकि खाने-पीने में आजादी रहे.बारात पहुंचते ही पहला धावा बिस्तर होता है ,बिस्तर पाने पर ऐसा मचलते है जैसे उस पर उनका जनम-जनम का आधिपत्य रहा हो -क्या मजाल कि वे किसी के लिए बिस्तर खाली कर दें.बिस्तर न पाने वाले लोग इस ताक में रहते हैं कि कभी न कभी लघुशंका-दीर्घशंका के समय या फिर भोजन करने जाते समय तो बिस्तर खाली होगा ही,इधर बिस्तर खाली हुआ नहीं कि दूसरी टीम का उस पर कब्जा.आपनें आपत्ति जताया तो टका सा जबाब हाज़िर है त का एकर बैनामा कराए हैं का .फिर जो दबंग पड़ा बिस्तर उसी का. अब गांव में भी शादियों के सुंदर सलोने गाने तो बंद हो चुके है अब शहर हो या गांव अजब -गजब गानों से माहौल प्रदूषित सा हो चला है.शहरों में तो उतना बुरा शायद नहीं लगता लेकिन गांव के मेड़ों पर डीजे पर बज रहे इन गानों से अपनें बड़े बुजुर्गों के बीच सर छुपाना कठिन होता है.विवाह मंडप में भी अब पुरानी वाली अलंकारिक गालियाँ नहीं सुनाई पडती .अब फ़िल्मी गानों की तर्ज़ पर सस्ते स्तर के वैवाहिक गीतों को अपनी नई पीढी गा रही है .यदा-कदा जब पुराने गाने मंडपों में सुनाई पड़ जाते हैं तो कौतूहल होता है साथ में मन ही मन धन्यवाद देता हूँ कि अपनी संस्कृति को वहाँ अभी भी जीवित रखा गया है.
मई-जून - जुलाई में शादियों की बात-पुरानी हुई अब तो ठंड के महीनों में केवल खरमास को छोड़ रोज शादियाँ हो रही हैं-लगता है अभी लिंग अनुपात यथार्थ में परिलक्षित नहीं है-वर्ना शादी के लिए लडकियाँ ढूढ़ते रह जायेंगे. इन शादियों वाले दिनों में गांव और शहर में शादियों के चलते एक तरफ कान फोडू संगीत तो दूसरी तरफ यातायात जाम के चलते लोग त्रस्त हो जाते हैं ,शहर की शादियों में तो गनीमत है कि एकाध घंटें में आप को रात्रिभोज के साथ फुरसत मिल जायेगी लेकिन गांव जाने वाली अधिकांश शादियों में एलीट वर्ग झेल जाता है .अगर आपके पास अपना निजी वाहन नहीं है तो फिर आप रात्रि जागरण करें- गंवई बकवास सुनें या विवाह मंडप में बैठ कर महिलाओं की गालियाँ सुनें क्योंकि आपके लिए अलग से वाहन की व्यवस्था नहीं है. यह अलग बात है कि सुबह की जलेबी-छोला-भटूरा और फिर कन्या पक्ष की तरफ से मिलनें वाले नोट की विदाई के चक्कर में भी अधिकांश लोग सुबह से पहले टस-मस नहीं होते।
अभी पिछले ही दिनों एक सज्जन जो कभी भी गांव की शादी में शिरकत नहीं कर पाए थे ,महानगर से गाँव की शादी में भाग लेने आये -अति उत्साह में थे.रात में बारात में जल्दी आइटम (मिठाई-चाट-भोजन) लेने के चक्कर में सूनसान रास्ते में नशे में धुत ड्राइवर सड़क के किनारे वाहन समेत एक अर्ध भरे तालाब में जा घुसा,जान बचाने की फिक्र में कीचड़ में लत-पथ बेचारे किसी तरह बाहर निकले तो पास के कुछ मनबढ़ लडकों नें चोर-चोर कह कर उनकी पिटाई कर दी -मोबाईल नेटवर्क बाधित होने से हम सब से मदद भी नहीं मांग पाए-बारात का स्थल काफी दूर था .हम लोग भोजन करते समय तक उनका इन्तजार करते रहे,पता चला की अभी वे नहीं आये है.हम लोंगों के जाने के बाद देर रात बेचारे बन पहुंचे थे कि बारातियों और घरातियों में आर्केस्ट्रा में नाच (-मुन्नी बदनाम ) को लेकर मार पीट हो गयी -खुराफाती तो भाग लिए पुलिस आने पर ,यही बेचारे पकडे गये फिर पुलिस का चक्कर-थाने में बैठा दिया गया .सुबह तक धुर गंवई शादी में भाग लेने का चस्का सदा सर्वदा के लिए उतर चुका था. गांव में कुछ भाई लोग कई चीजों को लेकर काफी उतावले रहते हैं जैसे उनसे कुछ छूट न जाये .आइटम एवं आउटिंग के चक्कर में जल्दी लगी रहती है -रास्ते भर ड्राइवर से जल्दी चलो-जल्दी चलो की रट लगाये रहते है ,इस चक्कर में अक्सर गाडी कहीं न कहीं खराब होती है या फिर दुर्घटनाग्रस्त .
अब पिछले कई सालों से एक शौक और गांवों में लहलहा रहा है वह है असलहों से द्वारपूजा के समय होने वाली फायरिंग.प्रशासन द्वारा कितनी भी चेतावनी दी जाय कोई फरक नहीं .वैध-अवैध असलहों का जखीरा खूब दीखता है इन गंवई शादियों में .लोग बाग़ इसे पुरुषों के श्रृंगार के रूप में इसे परिभाषित भी बखूबी करते हैं.रोज कोई न कोई हादसा हो रहा है लेकिन होने वाली घटनाओं से कोई सबक नहीं ले रहा है. कुछ लोग अनायास ही लड़की वाले के यहाँ इस फ़िराक में पहुंच जाते हैं कि क्या कुछ खाने -पीने को बन रहा है,देर क्यों हो रही है,किसी से परिचय कर लिया जाय ताकि खाने-पीने में आजादी रहे.बारात पहुंचते ही पहला धावा बिस्तर होता है ,बिस्तर पाने पर ऐसा मचलते है जैसे उस पर उनका जनम-जनम का आधिपत्य रहा हो -क्या मजाल कि वे किसी के लिए बिस्तर खाली कर दें.बिस्तर न पाने वाले लोग इस ताक में रहते हैं कि कभी न कभी लघुशंका-दीर्घशंका के समय या फिर भोजन करने जाते समय तो बिस्तर खाली होगा ही,इधर बिस्तर खाली हुआ नहीं कि दूसरी टीम का उस पर कब्जा.आपनें आपत्ति जताया तो टका सा जबाब हाज़िर है त का एकर बैनामा कराए हैं का .फिर जो दबंग पड़ा बिस्तर उसी का. अब गांव में भी शादियों के सुंदर सलोने गाने तो बंद हो चुके है अब शहर हो या गांव अजब -गजब गानों से माहौल प्रदूषित सा हो चला है.शहरों में तो उतना बुरा शायद नहीं लगता लेकिन गांव के मेड़ों पर डीजे पर बज रहे इन गानों से अपनें बड़े बुजुर्गों के बीच सर छुपाना कठिन होता है.विवाह मंडप में भी अब पुरानी वाली अलंकारिक गालियाँ नहीं सुनाई पडती .अब फ़िल्मी गानों की तर्ज़ पर सस्ते स्तर के वैवाहिक गीतों को अपनी नई पीढी गा रही है .यदा-कदा जब पुराने गाने मंडपों में सुनाई पड़ जाते हैं तो कौतूहल होता है साथ में मन ही मन धन्यवाद देता हूँ कि अपनी संस्कृति को वहाँ अभी भी जीवित रखा गया है.