रविवार, 20 मार्च 2011

मत करहूँ मलिनियाँ से यारी-----फाग गीत -चौताल

रंगों के त्यौहार होली की बहुत-बहुत शुभकामनाओं के साथ,अपनी पिछली पोस्ट के क्रम में आज फाग-गीत की एक विधा चौताल प्रस्तुत है.फगुआ गायनमें विशेष कर चौताल ( अर्द्ध तीनताल,दादरा,कहरवाऔर फिर अर्द्ध तीनताल ) का आनंद, क्या कहनें.आज इस पोस्ट में चौताल का एक पद ही शामिल किया गया है जिसको स्वर दिया है बाबू बजरंगी सिंह नें.इस गीत में नायिका अपने प्रिय से कहती है कि आप मलिनियाँ (फूल-माला देने वाली महिला ) से यारी मत कीजिये .उसके इन्तजार में आप फुलवारी में खड़े रहते हैं जो कि बहुत लज्जाजनक है और मेरे लिए शर्म की बात है।
इस फाग गीत के बोल हैं-----
मत करहूँ मलिनियाँ से यारी,बलम तोहें बरज-बरज हारी ,
रोज-रोज कर कवन प्रयोजन ,ठाढ़े रहत फुलवारी,
तब तुम केलि करत मालिनी संग,मैं तो मर गयी लजिया के मारी ,
मत करहूँ मलिनियाँ से यारी,बलम तोहें बरज-बरज हारी
अब बाबू बजरंगी सिंह के स्वर में सुनिए अवधी का परम्परागत आंचलिक फाग-गीत -चौताल --------



एक बार पुनः होली की ढेर सारी शुभकामनाओं सहित....




रविवार, 13 मार्च 2011

मैं तरुणी, हरि छोट जतन करिहों का....... (फाग गीत-उलारा)

फाग-रंग में रंगी मेरी पिछली पोस्ट और गत वर्ष की अपनी पोस्ट में मैंने फाग-गीत के विविध विधाओं पर चर्चा की थी.आज की पोस्ट फाग-गीत -उलारा से सम्बंधित है.इस आंचलिक फाग गीत में एक तरुणी की गहन पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति को चित्रित किया गया है.वह कह रही है कि मैं तरुणी हूँ और मेरा हरि (पति) अभी बालक है.उस पर उसकी ननद उसे चिढ़ा रही है तथा उससे कह रही है कि कटोरी में तेल और उबटन के साथ मालिश कर के जल्द अपने पति को बड़ा करे.ननद-भौजाई की नोक-झोक आंचलिक लोक गीतों में प्रमुखता से दृष्टब्य है.उसी का निदर्शन प्रस्तुत गीत में भी किया गया है.अवधी में रची-बसी इस रचना को हमारे जनपद के लोक गायक प्रज्ञा-चक्षु बाबू बजरंगी सिंह बहुत मन से गाते हैं .अब गांवों में भी इस प्रकार की गायकी-बोल कम ही सुनायी पड़ते हैं क्योंकि आधुनिकता की बयार अब वहाँ भी पहुँच चुकी है ।
अब पहले बाबू बजरंगी सिंह के स्वर में सुनिए अवधी का परम्परागत आंचलिक फाग-गीत -उलारा --------



इस फाग गीत के बोल हैं------
करिहौं का का यार -मैं तरुणी, हरि छोट जतन करिहों का
गऊँवा गोयाड्वा आयल बरतिया हे रामा हो हुलसे मन मोर ,
सैंया के देखल गदेलवा -जिया जरि मोर ......
मैं तरुणी, हरि छोट जतन करिहों का......
लहुरी ननदिया ताना मारे हे भौजी तोहरौ हरि छोट ,
हाथे में लईला बुकौवा -कोसिया भर तेल ,
चढ़ी जा बालम सेजरिया -मलि करिदै सयान-
मैं तरुणी, हरि छोट जतन करिहों का.....
बड़े बाग़ में पड़ा बिछौना हे रामा हो ,
तकिया मखमौल ,ता पर पिय मोरा सोवै -अंखिया रतनार -
मैं तरुणी, हरि छोट जतन करिहों का....
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अब अगली सामयिक पोस्ट में फिर फागुनी चौताल के साथ भेंट होगी...






बुधवार, 9 मार्च 2011

बिन बलमा फगुनवा जहर लागेला ......

फागुन फिर आ गया है . गाँव में बसंत पंचमी से फागुनी बयार बह रही है. मुझे गर्व होता है कि कुछ लोग आज भी लोग इस जीवन्तता को कायम किये हुए है,भले ही परिवर्तन का एक नया दौर आ चुका है-लेकिन इस डिजीटल युग में भी हम सब को मौसमों के आने -जाने का एहसास बखूबी होता रहता है.गांव-घर मदनोत्सव का दौर प्रारंभ हो चला है जो कि होली के बाद आठ दिनों तक चलेगा . शाम हुई नहीं कि कहीं ना कहीं ढोल के साथ मंडली बैठ गयी .वैसे भी अवधी की एक कहावत है कि इस फागुन महीने में मदन देव की कृपा से आदमी क्या पेड़ भी नंगे हो जाते हैं. जनपद के विख्यात लोक कवि स्वर्गीय पंडित रूपनारायण त्रिपाठी जी के शब्दों में-
जहाँ फूले न फागुन में सरसों ,
जहाँ सावन में बरसात न हो |
किस काम का है वह गाँव जहाँ ,
रसजीवी जनों की जमात न हो |

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नशा मौसम का सबके लिए है ,
तुझको कुछ और हुआ तो नहीं |
तन में फगुआ न समा गया हो ,
मन में टपका महुआ तो नहीं |

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गत वर्ष फाग -गीतों की एक श्रृंखला मैंने शुरू की थी -उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए आज फिर यह पोस्ट प्रस्तुत है.
हमारे जौनपुर जनपद के बदलापुर तहसील के गांव बुढ्नेपुर निवासी
प्रज्ञा चक्षु बाबू बजरंगी सिंह जनपद के प्रतिष्ठित लोक -गीत गायक माने जाते हैं .नेत्रहीन होने के बावजूद संगीत के प्रति गहरी उनकी आस्था नें लोकगीत गायन के प्रति उन्हें प्रेरित किया.इनके पास श्रवण-परम्परा से प्राप्त लोकगीतों का अद्भुत संग्रह है.


आज फाग-गीत गायन के सम्राट प्रज्ञा चक्षु बाबू बजरंगी सिंह के स्वर में सुनिए अवधी का परम्परागत आंचलिक फाग-गीत ......




डाऊनलोड

इस फाग गीत के बोल हैं-------
कोयल कूक से हूंक उठावे -धानि धरा धधकावे हिया में ,
पपिया पपीहा रतिया के सतावे -फूलत हैं सरसों -सरसों ,
घर कंत न होत बसंत न आवत।
बिन बलमा फगुनवा जहर लागेला।
बिरहिणी आम बौर बौरायल ,
बन तन आग पलाश लगावत ,
पिय घर सबही सुघर लागेला ,
बिन बलमा फगुनवा जहर लागेला
कोयल कूक हूक उदगारत ,
शीतल मंद मलय तन जारत ,
चातक शशि जैसे सर लागेला ,
बिन बलमा फगुनवा जहर लागेला..
फगुनवा आयल रे दैया ,
एक तो उमरिया के बारी रे -पियवा परदेश,
रहि-रहि के मारत कटारी ,
जिया बौराइल रे दैया
फगुनवा आयल रे दैया ,
मारे श्रृंगार हार-रंग रोरी ,
सजनी सोहाइल मोको मंगल होरी ,
गले डाले रुमाल-गले डाले रुमाल-
होली न खेलब सैंया तले
सैंया के मोहन माला हो हमरो चटकील ,
दूनौ के बनिहय गुदरिया,
सुमिरब दिनरात -सुमिरब दिनरात -
होली न खेलब सैंया तले ।
सैंया के शाला दुशाला हो -हमरे गर हार ,
दूनौ क बनिहै सुमिरिनी ,
होई जाबे फकीर -होई जाबे फकीर -
होली न खेलब सैंया तले ।
चातक-शशि विषधर लागेला हो-
बिन बलमा फगुनवा जहर लागेला

यकीन मानिये जो रस इन परम्परागत फाग गीतों में हैं वह आज-कल बज रहे फूहड़ गीतों में नहीं है .अगली सामयिक पोस्ट में एक फागुनी उलारा के साथ फिर मुलाकात होगी--------