फागुन महीनें में जब गवैयों की भीड़ उल्लास पर हो तो ऐसे-ऐसे गाने होतें हैं कि मारे शरम के भागना भी पड़ जाता है खैर इस समय मैं पडोस के एक गावं में हूँ जहाँ पुराने गायकों की मंडली अपनें प्रचंड फाग -राग पर है .यह एक दुर्लभ संयोग है ,यहीं से रिपोर्टिंग कर रहा हूँ .उम्दा चौताल फिर कभी सुनाऊंगा अभी इस फाग मंडली का चौताल सुनिए,इसकी रिकार्डिंग सीमित संसाधनों के चलते यहाँ अच्छी संभव नहीं हो पाई है जिसके लिए मुझे खेद है - इसलिए इस गीत के पूरे पद मैं नीचे लिख रहा हूँ -
बिन पिया बिरहा तन साले हो अंग हमारे ,
अस मन होई जय जमुना में कूद परों मझधारे ,
नाहि त सिधु सरासन में बरु हरी पर जियरा हति डारे ,
हो अंग हमारे ....
गोरी पागल बा गोरी पागल बा ,फागुन महीनवा होली में
एक तो फागुन दूजै चढली जवानी ,
तीजे पागल बा - पागल बा मस्त यौवनवा होली में ।
होली में कंठी माला टूटा ,
खटिया टूट जाय,टूटै कंगनवा होली में ,
भौजी के संग ननदी बौराइल ,
उहे भागल जाय -भागल जाय,
खोजे सजनवाँ होली में ........
अब गवई गवैयों द्वारा , विलुप्त हो रही इस विधा को सुनिए ...
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अफ़सोस यह कि इस गायकी पर अब कोई लगातार ढोल बजाने वाला भी नहीं है .६७ वर्ष के करीब पहुच रहे लोक संगीत के प्रख्यात ढोल वादक, चौताल सम्राट, बाबू बंशराज सिंह ,जिनका ११ -१२ घंटे अनवरत ढोल बजाने का रिकार्ड रहा है अपनी गम्भीर बीमारी के बावजूद आज भी ढोल बजा रहे हैं और चाहते है कि यह परम्परा सूरज-चाँद के रहनें तक अबाध गति से चलती रहे.अब सुनिए वह स्वयं अपनें शिष्य पंडित कृष्ण नन्द उपाध्याय के साथ चौताल पर एकल ढोल वादन कर रहे हैं ,हर पद पर ,रंग बदलती हुई ढोल......
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