बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

शुभ दीपावली ...


अपने सभी मित्रों, आदरणीय जनों को प्रकाश पर्व पर बहुत-बहुत शुभकामनायें..... शुभ दीपावली ..... जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल, उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले, लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी, निशा की गली में तिमिर राह भूले, खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग, ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। सृजन है अधूरा अगर विश्‍व भर में, कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी, मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी, कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी, चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही, भले ही दिवाली यहाँ रोज आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में, नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा, उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के, नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा, कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब, स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। ------ गोपालदास "नीरज"

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

क्या ऐसे ही हम 2020 तक महाशक्ति बनेंगे ? (३)

गतांक से आगे....
21 सितम्बर 1995 को देव प्रतिमाओं ने अपने भक्तजनों के हाथों दुग्धपान किया , पूरे देश की तत्कालीन मीडिया ने उसे खूब प्रचारित किया। कन्याकुमारी से काश्मीर तक केवल यही खबर तैर रही थी। देश में हाई एलर्ट की स्थिति थी,तब राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग,भारत सरकार, के वैज्ञानिक दल ने जिसमें डॉ मनोज पटैरिया भी शामिल थे, इस चमत्कार के सच को जनता के सामने रखा था। वैज्ञानिक दल का मानना था कि वास्तव में प्रत्येक द्रव का अपना पृष्ठ तनाव होता है,जो कि द्रव के भीतर अणुओं के आपसी आकर्षण बल पर निर्भर करता है और इसका आकर्षण बल उस ओर भी होता है, जिस पदार्थ के सम्पर्क में आता है। देव प्रतिमाओं के दूध पीने में भी ऐसा ही हुआ है। जैसे ही दूध संगमरमर पर सीमेंट या अन्य चीजों से बनी मूर्तियों के सम्पर्क में आया वह तुरन्त मूर्तियों के सतह पर विसरित हो गया,जिससे श्रद्धालुओं को लगता है कि चम्मच से मूर्ति ने दूध खींच लिया है जबकि हकीकत में दूध की पतली सी धार नीचे से निकलती रहती है जो कि लोग विश्वास के कारण देख नहीं पाते। जब दूध में रंग,रोली मिलाकर देखा जाय तो रंगीन धार स्पष्ट रूप से दिखाई देगी। इस में कोई वास्तविकता नहीं है यह वैज्ञानिक नियमों के अन्तर्गत सामान्य प्रक्रिया है जिसे अज्ञानता के चलते लोग चमत्कार का नाम दे रहे हैं।इसमें सबसे दःखद पहलू यह है कि इस बात को हम अभी भी भारतीय जनता तक नहीं पहुंचा पाये हैं। आश्चर्य है कि अभी भी हमारी भोली-भाली जनता अज्ञानता के मोहपाश में जकड़ी है। वह अपनी कुंभकर्णी निद्रा का त्याग ही नहीं कर पा रही है या फिर हम वास्तव में अपने वैज्ञानिक संदेशों एवं उपलब्धियों को उन तक पहुंचा नहीं पा रहे हैं।
इसके साथ ही एक और चमत्कार ने तो कुछ वर्ष पूर्व देश को और भी शर्मसार किया था। पेयजल का मुद्दा जन स्वास्थ से जुड़ा है। मुम्बई म्युनिसपल कारपोरेशन एवं अन्य सरकारी संगठनों द्वारा की गयी घोषणा के बाद कि माहिम के तट पर तथाकथित मीठा जल स्वास्थ के लिए हानिकारक है एवं उसे पीने से तबियत खराब हो सकती है,लेकिन लोग थे कि मानते ही नहीं थे, पिये ही जा रहे थे। निश्चित रूप से यह चमत्कार नहीं है वैज्ञानिकों ने इसकी पुष्टि कर दी कि यह बारिश का पानी हैं। संचार माध्यमों ने इसको अपनें तरीके से खूब प्रसारित भी किया . ऐसी अज्ञानता से देश अँधेरे में ही जायेगा. सवाल यह है कि हम दुनिया में अगली पंक्ति के नायक इसी अज्ञानता के बदौलत होगें। हमारी शिक्षा प्रणाली या फिर नेतृत्व देने वाले लोग , कौन इसका जवाब दे। महामहिम पूर्व राष्ट्रपति जी के 2020 तक महाशक्ति बनने के ख्वाब को हम क्या ऐसे ही पूरा करेंगे? जब तक विशाल आबादी वाले इस महान देश के जन-जन में वैज्ञानिक चेतना का समावेश नहीं होगा तब तक महाशक्ति बनने का दावा करना कितना बेमानी लगता है और जब हम 64 वर्ष बीतने के बाद भी तथाकथित जागरूकता और प्रगति की आकडे़बाजी में फॅसे है,भौतिक धरातल पर जागरूकता की यह हालत है तो कैसे भविष्य में त्वरित सुधार की उम्मीद कर सकते हैं। आजादी के वर्षो को गिनने से तो रिटायर होने का समय आता दिखता है,ज्ञान सीखने का नहीं। भविष्य की आहट बहुत भयावह है। यदि हमें दुनिया के देशों की कतार में आगे बैठना है तो ज्ञान की शक्ति चाहिए,वैज्ञानिक जागरूकता चाहिए न कि अन्ध विश्वास ।दुष्यंत कुमार जी की ये पंक्तिया सम्भवतःसटीक हैं कि-
कहाँ तो तय था चिरांगा हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।।

समाप्त.









गुरुवार, 15 सितंबर 2011

क्या ऐसे ही हम 2020 तक महाशक्ति बनेंगे ? (२)

गतांक से आगे...
मूल विज्ञान नीति 1958 में भारत के पहले प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू ने आम आदमी तक वैज्ञानिक मनोवृत्ति के प्रसार की पुरजोर वकालत की थी, किन्तु आज भी भारतीय परिप्रेक्ष्य में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया हैं। वर्तमान समय में जनमाध्यम (इलेक्ट्रानिक एवं प्रिण्ट मीडिया) वैज्ञानिक जागरूकता के नजरिये से अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं कर रहे हैं। दशकों पूर्व जन माध्यमों में लुप्त हो चुकी अवैज्ञानिक खबरें आज मीडिया की सुर्खियों में हैं। भूत-प्रेत,शकुन-अपशकुन,व्याह शादी में कुण्डली मिलान,रोग-व्याधियों का देवी-देवताओं से सम्बन्ध,ग्रह-नक्षत्रों के दुष्प्रभाव,तान्त्रिकों का महाजाल एवं अन्याय पुरातन अवैज्ञानिक धारणायें आज इन जन माध्यमों के जरिए अपनी पुनर्वापसी कर रही हैं.
आज इलेक्ट्रानिक मीडिया में देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठत चैनलों पर जो कि सबसे तेज होने का दावा कर रहे हैं,वे नाग-नागिन,भूत-प्रेत,डाक बंगलों का रहस्य,सूर्य-चन्द्रग्रहण को अनिष्टकारी बताते हुए या तमाम ऐसी अवैज्ञानिक खबरों को 24 घण्टे प्रसारित करते हैं जिनका कि सच से दूर तक वास्ता नहीं होता। परन्तु इन चैनलों के संवाददाता अपने सीधे प्रसारण में इस विश्वास के साथ बात करते हैं कि कैसे नाग के हत्यारे की फोटो नागिन की आँखों में चस्पा होती है,कैसे सूर्य-चन्द्रग्रहण अमुक राशि वाले व्यक्तिओं के लिए घातक होगा या फिर कैसे डायन भेष बदलकर गांवों में आ रही है एवं उससे बचने का क्या उपाय है? आदि-आदि। निश्चित रूप से विज्ञान विधि से अप्रशिक्षित ये संवाददाता इस तरह से जाने-अनजाने इस देश को अंधे युग की ओर ले जा रहे हैं। मीडिया में हाल के महीनों से अवैज्ञानिक खबरों को प्रदर्शित करने की जैसे होड़ लगी थी । वह भी ऐसी खबरें जिनका कि कोई वैज्ञानिक सच नहीं है। जैसे-’चीते की खाल बरामद-चार बन्दी’, (बताते चलें कि भारत के जंगलों में चीते के विलुप्त हुए कई दशक बीत चले हैं), ’अनिष्टकारी होगा सूर्यग्रहण’, ’पवित्र मरियम की मूर्ति से सुगंधित इत्र का स्राव’, ’माहिम (मुंबई) में चमत्कार से मीठा हुआ समुद्र का पानी’, ’राची में हनुमान की मूर्ति ने आँखें तरेंरीं’, ’गणेश जी ने पुनः शुरू किया दुग्ध पान’, ’घरों पर जो ओ३म् नहीं लिखेगा-डायन मार डालेगी’,’तंत्र-मंत्रों से इलाज कराइए’ एवं ’इच्छाधारी नागिन’ ने पांच बार डसा’आदि आदि।ऐसी खबरें समाज को किस ओर ले जा रही हैं, यह गम्भीर चिंतन का विषय है। कब तक हम ऐसे कृत्यों से अपने आपको एवं पूरे समाज को महिमा मंडित करने का दावा कर पूरे राष्ट्र को कलंकित करते रहेगें?

जारी......





मंगलवार, 13 सितंबर 2011

क्या ऐसे ही हम 2020 तक महाशक्ति बनेंगे ?

आज अनवरत पर आदरणीय दिनेश राय द्विवेदी जी का यह आलेख पढ़ रहा था .मैं द्विवेदी जी के विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ क़ि आज-कल मॉस मीडिया में नित्य प्रति कर्मकांड को लेकर तरह- तरह की चर्चा और सुझाव आते रहते हैं जो क़ि पढ़े-लिखे समाज के लिए कोई शुभ संकेत नही है.

आजाद भारत के 64 वर्ष बीत चुके हैं और वैज्ञानिक जागरूकता अभी भी सोचनीय स्थिति में है। प्रति वर्ष देश की प्रगति आख्या के सरकारी शब्द अन्तर्मन को झकझोरते रहते हैं, परन्तु अन्धविश्वास एवं अज्ञानता के कई एक उदाहरण पूरी दुनिया के समक्ष हमारी प्रगति को अंगूठा दिखाते चलते हैं। मीडिया भी इसे खूब महत्व देती है?, मानो तर्क का यही आखिरी पड़ाव हो। यह इस महान देश के लिए भी कितनी असहज करने वाली बात है कि हम 2020 तक महाशक्ति बनने का दावा कर रहे हैं,समूची दुनिया को हम अंतरिक्ष विज्ञान ,अर्थव्यवस्था में चुनौती देने की स्थिति में हैं, वहीं अभी पिछले कुछ वर्ष पूर्व ही मुम्बई शहर के माहिम से बड़ोदरा के तीपल तट तक और बरेली से लेकर समूचे उत्तर भारत में लोगों का भारी हुजूम कहीं समुद्र के जल को मीठा होना चमत्कार मान रहा था या फिर हमारे देवी-देवता पुनः अपने भक्तों और श्रद्धालुओं के हाथों दुग्धपान कर रहे थे। इन घटनाओं को प्रबुद्ध समाज में न तों अनदेखी की जा सकती है और न ही यह उपहास का कारण है। यह गम्भीर चिन्तन एवं मनन का विषय है कि आज मीडिया के क्षेत्र में भी ऐसे जागरूक लोगों की जरूरत है,जो कि नीर-क्षीर का विवेचन कर समाचारों को सार गर्भित रूप में प्रस्तुत कर सकें । आज मनोरंजन के नाम पर जो कुछ परोसा जा रहा है वह सब कुछ ठीक है? यह अपने आप में एक सवाल है। इस महान देश पर आज सांस्कृतिक हमले का बिगुल बज चुका है और क्योंकि हम अभी तक सबको साक्षर नहीं बना पाये हैं, इसलिए यह सब जानकर भी अनजान बनने का नाटक कर रहे हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में हमारा सब कुछ दांव पर लगा है . अतः आम जन तक वैज्ञानिक जागरूकता के प्रसार के लिए यह आवश्यक है कि जन माध्यमों (मास मीडिया) के माध्यम से वैज्ञानिक संदेश जन-जन तक पहुंचाया जाये ,न की अवैज्ञानिक अवधारणा को . ....
जारी .......

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

स्व. डॉ क्षेम : कुछ मुक्तक -कुछ संस्मरण.

जैसा कि मेरी पिछली पोस्ट में, मैंने साहित्य वाचस्पति स्व.डॉ श्री पाल सिंह क्षेम की चर्चा की थी .आज उस महाकवि का जन्मदिन है.क्षेमस्वनी आज मौन हैं-सन्नाटा है .प्रतिवर्ष आज के दिन दो सितम्बर को प्रतिष्ठित रचनाकारों,कवियों से जौनपुर गुंजायमान रहता था.उनकी चर्चा -संस्मरण आज जनपद के साहित्यकारों -बुद्धिजीवियों में दिन भर होती रही .आज एक संस्मरण में जनपद के प्रतिष्ठित साहित्यकार ,विधिवेत्ता डॉ प्रेम चन्द्र विश्वकर्मा"प्रेम जौनपुरी" नें बताया कि एक बार, एक निरपराध व्यक्ति को सज़ा होने वाली थी जो क्षेम जी की एक गवाही से बच गया.उन्होंने बताया कि क्षेम जी के बारे में पूरा जनपद जानता था कि वह भोर में चार बजे के आस-पास ही सोते थे और उनकी सुबह दोपहर को होती थी.वह व्यक्ति एक ऐसे मामले में अभियुक्त बनाया गया था जो कि रात सवा दो बजे की घटना थी .क्षेम जी जानते थे कि व्यक्ति एकदम बेकसूर है तो उन्होंने न्यायालय में उपस्थित होकर कहा कि यह व्यक्ति मुजरिम नहीं हो सकता क्योंकि यह रात ढाई बजे तक मेरे साथ था. न्यायमूर्ति महोदय नें स्वयं जब रात के दो-तीन बजे चाय की दुकानों पर क्षेम जी को पाया तो उन्होंने उनकी गवाही का आधार बना कर उस व्यक्ति को बा -इज्जत बरी कर दिया। जब तक मैं स्वयं इस बात को नहीं जानता था तो उनसे मिलने जाने पर काफी परेशान होता उनसे भेंट न होती.दोपहर का उनका भोजन भी अक्सर शाम को ही होता था.लोग बताते हैं कि जब लोग सुबह वाक् पर टहलते होते तो अक्सर डॉ क्षेम जी कवि सम्मलेन से भाग लेकर आ रहे होते.जो नहीं जानते तो उनसे कहते कि बड़ी जल्दी जग गये आप तो वे कहते अरे भाई अभी मैं सोया कहाँ हूँ.
बावजूद इसके उनकी कक्षाओं में विद्यार्थियों की भारी भीड़ हुआ करती थी.देर से कक्षाओं में वे जब भी पहुचते ,छात्र-छात्राएं उनका इन्तजार करते थे और दो-तीन घंटे पढ़ने के बाद भी लोंगों को समय का एहसास न रहता.


इस महाकवि की कुछ मुक्तकों को स्मृति शेष के रूप में , सादर नमन करते हुए , आज उनके जन्म दिवस के अवसर पर प्रस्तुत कर रहा हूँ ...

फूल को शूल घेरे मिलेंगे ,
रात डूबे उजेरे मिलेंगे ,
नयन में प्यार के दीप रख लो ,
ज्योति में भी अँधेरे मिलेंगे।

कोई संकल्प ऐसा ठने ,
कोई निष्ठा तो ऐसी जगे ,
राम अपने से कब दूर हैं ,
कोई तुलसी तो पहले बने।

मन की गांठे बंधी पहले खोलो ,
प्यार से पहले मन को तो धो लो ,
देश को फूल देना कठिन है,
पहले आँगन में ही फूल बो लो।

भाव मन के जो प्रतिकूल होंगे,
पथ में शूल ही शूल होंगे,
देश को फूल तब दे सकोगे ,
अपनेँ आँगन में जब फूल होंगे।



गुरुवार, 25 अगस्त 2011

साहित्य वाचस्पति डॉ .श्रीपाल सिंह क्षेम : विनम्र श्रद्धांजलि


(चित्र साभार -श्री आशीष श्रीवास्तव )



डॉ.श्रीपाल सिंह 'क्षेम' का निधन हमारे जनपद ही नहीं अपितु पूरे साहित्य जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति है.कल जनपद से हिन्दी जगत का सूर्य अस्त हो गया. डॉ क्षेम की उम्र नब्बे वर्ष थी लेकिन आज भी आपका जज्बा और हौसला कम नहीं था.अभी भी आप सक्रिय जीवन बिता रहे थे. अंतिम संस्कार नम आँखों से आज सुबह आदि गंगागोमती के रामघाट पर किया गया.जनपद के साहित्य प्रेमियों के लिए डॉ .श्रीपाल सिंह क्षेम को भुला पाना सहजनहीं है.गीतों के इस राजकुमार को हिन्दी साहित्य का शब्दकोश कहा जाता था.उनके गीत-मुक्तक,गद्य -पद्य इतनेंसहज और विद्वतापूर्ण होते थे कि उस पर निरंतर चिंतन-मनन भी होता रहता था. आपकी इसी विलक्षण प्रतिभाका निदर्शन इससे भी होता है कि आप की रचनाओं को पूर्वांचल विश्वविद्यालय समेत कई विश्वविद्यालयों ने अपनेपाठ्यक्रम में शामिल किया था.

डॉ.क्षेम का जन्म दो सितम्बर 1922 को हमारे पड़ोसी गांव बशारतपुर में हुआथा। समूचे देश में आपकी पहचानछायावादी काव्यधारा के सशक्त कवि के रूप में हुई थी. 1948 में प्रयाग विश्वविद्यालय से हिन्दी में आपनेंस्नातकोत्तर उपाधि धारण किया था. डा. क्षेम इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपनें अध्ययन के दौरान ही साहित्य कीसर्वोच्च संस्था परिमल से जुड़ गये थे. उसी दौर में आपका संपर्क डा. धर्मवीर भारती, डा. जगदीश गुप्त, डा. रघुवंश,प्रो. विजय देव नारायण,सुमित्रा नंदन पंत,महादेवी वर्मा, कथाकार पहाड़ी, नरेंद्र शर्मा, डा. हरिवंशराय बच्चन, गंगाप्रसाद पांडेय, प्रभात शास्त्री से हुआ .कालांतर में जनपद केप्रमुख और प्रतिष्ठित तिलक धारी महाविद्यालय में हिंदीप्रवक्ता पद पर आपकी नियुक्ति हुई और विभागाध्यक्ष के पद से १९८३ को आपनें अवकाश ग्रहण किया. उन्हें हिंदीसेवा संस्थान प्रयाग से साहित्य महारथी, हिंदी साहित्य हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश से साहित्य भूषण,मध्य प्रदेश नईगढ़ी से ठाकुर गोपाल शरण सिंह काव्य पुरस्कार ,सम्मेलन प्रयाग से साहित्य वाचस्पति, वीर बहादुर पूर्वांचलविश्वविद्यालय सेपूर्वांचल रत्न की उपाधि मिली थी. डॉ.क्षेम नें अनेक कृतियों का सृजन और सम्पादन किया था .आपकी प्रमुख कृतियों में नीलम तरी, ज्योति तरी, जीवन तरी, संघर्ष तरी, रूप तुम्हारा :प्रीत हमारा, रूपगंधा :गीत गंगा, अंतर ज्वाला, राख और पाटल, मुक्त कुंतला,मुक्त गीतिका, गीत जन के, रूप गंगा, प्रेरणा कलश, पराशरकी सत्यवती। कृष्णद्वैपायन महाकाव्य का संपादन। गद्य रचना में आपकी सशक्त कृतियाँ थी- छायावाद की काव्यसाधना, छायावाद के गौरवचिन्ह,छायावादी काव्य की लोकतांत्रिक पृष्ठिभूमि. प्रतिवर्ष 2 सितम्बर को क्षेमस्विनी संस्था द्वारा समारोह आयोजित कर आपका जन्मदिन मनाया जाता था। जन्मदिन समारोह में जहाँ एक ओर देश के प्रतिष्ठित कवि गण आते थेवहीं दूसरीओर देश की जानी-मानी हस्तियां भी उपस्थित होतीं थी.
मेरे प्रातः स्मरणीय पिता जी से डॉ क्षेम जी का बहुत स्नेह रहता था. पहले घर पर होने वाली काव्य गोष्ठी में डॉ क्षेमजरूर रहते थे.उनके साथ मैंने भी एक-दो बार उनकी और महाकवि पंडित रूपनारायण त्रिपाठी जी की रचनाओं कासस्वर पाठ कर किया था.मेरी रचनाओं से वे बहुत खुश होतेऔर पिता जी कहते कि इसका गला बहुत बढ़िया हैइसको अपनी प्रतिभा को दबाना नहीं चाहिएपिता जी के निधन के बाद उनकी प्रथम पुण्यतिथि पर वर्ष २००० मेंपिता जी के स्मृति ग्रन्थ के सम्पादन का दायित्व आपनें स्वयं लिया था.उन दिनों मेरी आपसे नियमित मुलाकातहोती और मेरा खूब ज्ञानार्जन होता.आपसे मैंने भी बहुत कुछ सीखा -समझा.मुझे मेरे पिता जी डॉ राजेंद्र प्रसादमिश्र,,पितामह वैद्यप्रवर पंडित उदरेश मिश्र ही नहीं वरन प्रपितामह वैद्य शिरोमणि पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र सेजुड़े अपनेँ संस्मरण बताते थे जिनको आपनें अपनेँ बालपन में देखा था.मेरे परिवार की कई पीढ़ियों से आप परिचित थे.
डॉ .श्रीपाल सिंह क्षेम के चर्चित मुक्तकों में से कुछ एक को मैंने अपनी एक पोस्ट में प्रकाशित भी किया .था.साहित्य के इस महारथी को चलते-चलते उनकी एक रचना से ही अपनें स्वर में नमन कर रहा हूँ...

अश्रु में हास फेरे मिलेंगे ,
आँधियों में बसेरे मिलेंगे,
डूबता सूर्य यह कह गया है,
फिर सबेरे-सबेरे मिलेंगे.
चार दिन का है मेहमा अँधेरा ,
किसके रोके रूकेगा सबेरा,
डूबता सूर्य यह कह गया है ,
फिर सबेरे -सबेरे मिलेंगे..............
हमारे लिए ,आपकी साहित्य धर्मिता सदैव जीवित रहेगी. ...विनम्र श्रद्धान्जलि..

शनिवार, 13 अगस्त 2011

रक्षा बंधन पर विशेष-- लोक-गीत कजरी में व्यक्त, भाई-बहन का प्यार...

सावन जहाँ भक्तिभावना,पर्यावरण उल्लास और हर-हर महादेव की विशेष उपासना के लिए जाना जाता है वंही यह माह भाई -बहन के अटूट प्यार और विश्वास के लिए भी हमारे समाज में जाना पहचाना जाता रहा है.आज भले ही हम यंत्रवत हो गये हों,संवेदनाएं हममें सो गईं हो लेकिन ज्यादा दिन नहीं हुए जब हम डिज़िटल युग में नहीं थे,गांव-गांव-शहर-शहर में भाई- बहन इस महीने की बेसब्री से प्रतीक्षा करते थे
आज सावन का आख़री दिन है,पिछले दो दशक से लगातार मद्धिम होते कजरी के लोकगीतों में यह मेरे लिए पहला अवसर है जब पूरा सावन बीत गया और कानों में कजरी के गीत नहीं सुनाई दिए.मैं हैरान हूँ और दुखी भी कि हमारी लोक संस्कृति कहाँ चली गयी.जब गांव में यह हाल है तो शहरों में किसे फुर्सत है.
उत्तर-प्रदेश में ,मिर्ज़ापुर की कजली बहुत मशहूर हुआ करती थी,हमारा जिला जौनपुर भी इससे सटा होने (और जौनपुर-मिर्ज़ापुर के वैवाहिक रिश्तों में जुडा होने के) कारण पूरा सावन कजरी मय होता था. इस लोक-गीत में जहाँ एक ओर विरह की वेदना के स्वर रात में दस्तक देते थे तो वहीं दूसरी ओर यह हमारे अतीत के ऐतिहासिक पन्नों को भी अपनेँ साथ लिए चलती थी.यह कजरी की बानी हमारी लोकसंस्कृति की पुरातन गाथा भी थी और दिग्दर्शिका भी.यह सब आज अतीत में लीन हो चली है.
आज रक्षा बंधन के दिन मुझे बचपन में सुनी गयी और आज भी मेरे अंतर्मन में रची-बसी लोक गीत कजरी के बोल याद हो आये जिसमें भाई-बहन के प्यार को गूंथा गया है.इस कजरी के बोल संभवतः उन दिनों में लिखे गये जब देश में टेलीफोन -मोबाईल तो छोड़िये ,यातायात के भी साधन नहीं थे.
बहन ससुराल में हैं,राखी वाले दिन आँगन की सफाई करते झाड़ू टूट जाती है और फिर शुरू होता है सास का तांडव
कई बहनों में भाई एकलौता था,सास भाई का नाम लेकर गाली देना शुरू कर देती है-बहन गुहार लगाती है क़ी मुझे चाहे जो कह लीजिये मेरे भाई को कुछ मत कहिये. इसी बीच भाई जाता है,उसके भोजन में खाने के लिए बहन की सास सड़ा हुआ कोंदों का चावल और गन्दा चकवड़ का साग परोस देती है. भाई बहन की यह दुर्दशा देख रोने लगता है और अगले ही दिन घर जाकर एक बैलगाड़ी झाड़ू बहन के घर लाता है ताकि उसकी बहन को फिर कोई कष्ट दे
कजरी की लोकधुन वैसे भी बहुत मार्मिक होती है .बचपन में जब हम लोग यह गीत रात के सन्नाटे में सुनते थे,आंसू जाते थे.आज उसी गीत के बोल आप तक पहुंचा रहा हूँ,मुझे लगता है कि अब इस गीत के बोल भी लगभग लुप्त हो चुके हैं।॥

अंगना बटोरत तुटली बढानियाँ अरे तुटली बढानियाँ,
सासु गरियावाई बीरन भइया रे सांवरिया,
जिन गारियावा सासु मोर बीरन भइया ,अरे माई के दुलरुआ ,मोर भइया माई अकेले रे सांवरिया,
मचियहीं बैठे सासु बढैतीं ,
अरे भइया भोजन कुछ चाहे रे सांवरिया ,
कोठिला में बाटे कुछ सरली कोदैया,
घुरवा-चकवड़ साग रे सांवरिया,
जेवन बैठे हैं सार बहनोइया

सरवा के गिरे लाग आँस रे सांवरिया,
कि तुम समझे भइया माई कलेउआ ,
कि समझी भौजी सेजरिया रे सांवरिया,
नांही हम समझे बहिनी माई कलेउआ ,
नाहीं समझे धन सेजरिया रे सांवरिया ,
हम तो समझे बहिनी तोहरी बिपतिया ,
नैनं से गिरे लागे आँस रे सांवरिया,
जब हम जाबे बहिनी माई घरवा ,
बरधा लदैबय बढानियाँ से सांवरिया,
घोड़ हिन्-हिनाये गये ,सासु भहराय गये ,
आई गयले बिरना हमार रे सांवरिया.....

कजरी की लोक धुन से परिचित कराने के लिए इस गीत की दो लाइनों को मैंने अपना स्वर दे दिया है,शेष पूरा गीत ,फिर कभी...


मंगलवार, 12 जुलाई 2011

महामहोपाध्याय प्रो.वाचस्पति उपाध्याय :अश्रुपूरित श्रद्धांजलि .


कल अचानक फोन पर जैसे ही पता चला कि श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्या पीठ के कुलपति महामहोपाध्याय प्रो.वाचस्पति उपाध्याय जी नहीं रहे,मानो वज्रपात हो गया.सहसा विश्वास नहीं हुआ ,लगा जैसे उनके किसी शुभचिंतक नें मृत्यु की झूठी खबर अंधविश्वास के चलते उड़ाई है.(पूर्वांचल में एक अंधविश्वास है कि यदि कौवा सिर पर चोंच मार दे तो आसन्न मृत्यु से बचने के लिए शुभचिंतकों में मृत्यु की खबर फैलाई जाती है ताकि संबन्धित के मृत्यु का संकट टल सके.) लेकिन यह सत्य था-अमिट सत्य जिसे कोई गलत नहीं कह पाया . काल के क्रूर हाथों नें उन्हें हमसे छीन लिया था,अचानक हृदयाघात के चलते उनकी मृत्यु हो चुकी थी.पता चला कि बीती रात एक वैवाहिक कार्यक्रम से वे बिलकुल स्वस्थ-प्रसन्न लौटे थे .रात सोये तो चिर लीन हो गये.-संभवतः नियति को यही मंज़ूर था.उपाध्याय जी सरीखे व्यक्तित्व को सहज़ विस्मृत कर पाना मेरे लिए संभव नही है .सुसौम्य व्यक्तित्व के स्वामी प्रो.उपाध्याय भारतीय दर्शन ,वेद-वेदांग,धर्मसूत्र और संस्कृत साहित्य के प्रकांड विद्वान थे,ऐसा सहज तथा सुसौम्य व्यक्तित्व दुर्लभ है .स्वभाव से अति मृदुभाषी प्रो.उपाध्याय, हास-परिहास में भी बहुत रूचि लेते थे.उनके साथ हम सब का पारिवारिक सम्बन्ध था.मेरे प्रातः स्मरणीय पिता जी के निधन को सुन कर उन्होंने हमें ढाढस दिया और अगले साल स्व.पिता जी के श्रद्धांजलि गोष्ठी में भाग लेने नई दिल्ली से यहाँ आये. आपका मुझ पर बड़ा स्नेह रहता था.

अभी पिछले महीने ही उनसे मेरी मुलाकात विश्वविद्यालय में हुई थी .एकदम स्वस्थ और प्रसन्न .बहुत सारी बातें हुई साथ ही साथ दोपहर का भोजन भी किया गया .कौन जानता था यह हम सब की आख़री मुलाकात है ?
एक जुलाई १९४३ को सुल्तानपुर (उ.प्र.)में एक कुलीन आचार्य कुल में पैदा हुए प्रो.उपाध्याय से हमारे गाँव से बहुत मधुर रिश्ता था.उनका विवाह यहीं सीमावर्ती गांव सुजियामऊ में एक कुलीन ब्राहमण परिवार में सन १९६१ में बक्शा के पूर्व प्रमुख पंडित श्री पति उपाध्याय की बहन शारदा उपाध्याय के साथ हुआ था.विगत २० मई को ही आपनें अपनेँ वैवाहिक जीवन की स्वर्ण-जयन्ती वर्षगांठ को मनाया था.
आपका व्यक्तित्व और कृतित्व बहुत विराट था.१९६२ में कोलकाता विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम्.ए तथा वहीं से पी एच डी प्रो.वाचस्पति जी नें सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से १९६७ में डी.लिट की उपाधि प्राप्त की थी.उन्हें संस्कृत शिक्षा परिषद ,कोलकाता और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी द्वारा महामहोपाध्याय की उपाधि से भी अलंकृत किया गया था.उनकी विद्वता पर वर्ष २००१ में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री के.आर .नारायणन द्वारा राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित किया था.संस्कृत भाषा के उन्नयन के लिए आप के द्वारा कई अंतर राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया गया .आपके नेतृत्व में वर्ष २००1 में विज्ञान भवन , नई दिल्ली में आयोजित विश्व संस्कृत सम्मलेन की याद आज भी लोगों में ताज़ा है.समय -समय पर आपके द्वारा महत्वपूर्ण पदों को भी सुशोभित किया गया.दिल्ली विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष,सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी के रजिस्ट्रार,गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार के प्रति -कुललिंकपति और वर्ष १९९४ से लगातार श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्या पीठ के कुलपति के रूप में आप सदैव याद किये जाते रहेंगे.वर्ष २००५ से ही आप लगातार भारतीय विश्वविद्यालय संघ के अध्यक्ष के रूप में भी कार्य कर रहे थे.
अभी विगत ०५ मई को आपके व्यक्तित्व और कृतित्व की बांकी-झांकी प्रस्तुत करता हुआ अभिनन्दन ग्रन्थ "वाचस्पति वैभवम " का लोकार्पण भी नई दिल्ली में एक भव्य समारोह में किया गया था.इस ग्रन्थ में देश के चारो शंकराचार्य महोदय,महामहिम राष्ट्रपति,विभिन्न प्रदेशों के महामहिम श्री राज्यपाल ,देश के प्रतिष्ठित माननीय और राजनेतागण,देश के शिक्षाविद समेत बहुत लोंगों नें प्रो.वाचस्पति जी के साथ अपनेँ संस्मरणों को साझा किया है और शुभकामनायें दी हैं .लगभग १३०० पृष्ठों में संकलित "वाचस्पति वैभवम "अपने आप में अद्वितीय कृति है.

जहाँ एक ओर उनके व्याख्यान कर्ण प्रिय और सम्मोहित करनें वाले होते थे तो उनका हास-परिहास हम सबको कभी नही भूलेगा.अभी पिछले महीने जून में ही जब वे एक कार्यक्रम में भाग लेने पूर्वांचल विश्वविद्यालय आये थे तो आयोजक उनसे बार-बार चाय पीने का आग्रह कर रहे थे और उपाध्याय जी उनसे विनम्रता पूर्वक मना कर रहे थे अंततः आयोजक नें कहा कि यह चाय नहीं चाह है ,उनका तपाक से जबाब था कि ज्यादा चाह लेंगे तो जल्दी ही हमारा स्वास्थ आह करने लगेगा.इसी वार्तालाप के क्रम में उनसे एक निकटवर्ती नें अपनी कुछ पारिवारिक कष्ट के बारे में बताया तो उन्होंने उनसे अवधी में ही कहा कि भइया आज -कल परिवार की परिभाषा बदल गयी है ,परि=चारो ओर और वार=युद्ध अर्थात जहाँ चारो ओर युद्ध का वातावरण हो आज-कल वही परिवार हो गया है.
महामहोपाध्याय प्रो.वाचस्पति उपाध्याय से जुड़े लोग,उनके शुभ चिन्तक और जो भी कभी न कभी उनसे मिले थे , निधन के समाचार से आज हतप्रभ है,सहसा विश्वास नहीं कर पा रहे ,लेकिन उनके आत्मा का प्रदीप अभी बुझा नहीं है .आपका कृतित्व हम सभी के लिए सदैव प्रेरणा का कार्य करेगा .आत्मा अजर है-अमर है. उस दिव्यात्मा को मेरा शत-शत नमन......






रविवार, 10 जुलाई 2011

एपार जौनपुर-ओपार जौनपुर: उत्खनन की प्रतीक्षा में एक और स्थल.



जौनपुर जिला मुख्यालय से करीब ४५ किलोमीटर की दूरी पर उत्तर -पश्चिम में खुटहन थानान्तर्गत स्थित गांव गढा-गोपालापुर अपने ऐतिहासिक अतीत को लेकर काफी समृद्ध रहा है.३५ एकड़ भूमि में एक विशाल टीले परस्थित यह गांव जनश्रुति के अनुसार कभी भर राजाओं की राजधानी था.स्थानीय लोग बताते हैं कि एक बार नदी इस पार और उस पर के राजाओं में हाथियों के नहलाने के सवाल पर विवाद हो गया,नदी उस पर का राजा ज्यादा शक्तिशाली था सो उसनें पूरी नदी के मुंह को ही मोड़ दिया .जो नदी पहले इस टीले से सट कर उत्तर से बहती थी उसकी धारा को दक्षिण से कर दिया गया जो कि आज भी दृष्टव्य है.बाढ़ के समय ही नदी अपनी पुरानी धारा और डगर पर आ पाती है.
इसी टीले में छुपे है कई ऐतिहासिक रहस्य



गोमती नदी की पुरानी डगर जो कि टीले से सट कर जाती थी

मौके पर आज भी ऐसा लगता भी है कि नदी की धारा मोड़ी गयी है ,वर्तमान में वह राजधानी नष्ट हो कर एक टीले के रूप में है जहाँ करीब पचास-साठ परिवारों का रहन-सहन स्थापित हो चुका है तथा वहां ऊपरी तौर से कुछ भी नहीं दीखता परन्तु दंत कथाओं में वह आज भी जीवित है ,जो आज भी उत्खनन की प्रतीक्षा है .इस सन्दर्भ में इस तथ्य का प्रगटीकरण करना समीचीन है कि समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति की २१ वीं लाइन में आटविक राजस्य शब्द मिलता है जिसे इतिहासकारों ने आटविक राज्य माना है .इतिहासकार फ्लीट और हेमचन्द्र राय चौधरी ने इन्हें जंगली राज्य मानते हुए इसकी सीमा उत्तर में गाजीपुर (आलवक) से लेकर जबलपुर (दभाल) तक माना है .संक्षोभ में खोह ताम्रलेख (गुप्त संवत २०९ -५२९ AD ) से भी ज्ञात होता है कि उसके पूर्वज दभाल ( जबलपुर ) के महाराज हस्तिन के अधिकार-क्षेत्र में १८ जंगली राज्य सम्मिलित थे .ऐसा प्रतीत होता है कि प्रयाग प्रशस्ति में इन्ही जंगली राज्यों की ओर संकेत किया गया है ,जिसे समुद्रगुप्त ने विजित किया था .इस सम्भावना को माना जा सकता है कि जौनपुर भी कभी इन जंगली राज्यों के अधीन रहा हो तथा संभव है कि यह भी तत्कालीन समय में भरों या अन्य जंगल में रहने वाली बनवासी जातियों के भोग का साधन बना हो.इस तथ्य के प्रगटी करण के नजरिये से भी गढ़ा-गोपालापुर में पुरातविक उत्खनन ,जौनपुर के प्राचीन ऐतिहासिक स्वरुप को और भी समृद्ध करेगा.

शनिवार, 2 जुलाई 2011

एपार जौनपुर - ओपार जौनपुर ..मादरडीह गांव -2

गतांक से आगे......
अब तक के उत्खनन के आधार पर मेरी पिछली पोस्ट में इस संभावना की ओर इशारा किया गया था कि संभव है कि आज से करीब २५०० वर्ष पूर्व यहाँ एक नगरीय और विकसित संस्कृति स्थापित थी .इस दिशा में कुछ आरंभिक संकेत मिलनें भी लगे है . करीब दो उत्खनित स्थल पर रिंग बेल का प्रमाण मिला है.यह रिंग बेल प्राचीन भारत में सोखताके रूप में इस्तेमाल में लाया जाता था जहाँ गंदे पानी आदि को इकट्ठा किया जाता रहा होगा।उस समय में यह रिंग बेल मिट्टी को गूंथ कर और फिर आग में पका कर इस्तेमाल में लाये जाते थे।
चित्र में देखिये रिंग बेल के अवशेष...



उत्खनन में प्राप्त हो रहे अन्य पुरावशेष.......






उत्खनन में तल्लीन,कहीं चूक हो जाये...


इतिहास को प्रगट करनें वाले मील के पत्थर ---श्री श्यामलाल,श्री हरिलाल ,श्री शेषमणि और श्री रामअनुज (सभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग से पिछले तीन दशकों से जुड़े है.)


इतिहास अनुसन्धान पर अपनी जबरदस्त पकड़ रखनें वाले टीम के दो सबसे बुजुर्ग सेनानी -श्री राम लखन और श्री राम खेलावन जो पिछले कई दशकों से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग के हर उत्खनन अभियान के साक्षी रहे है ..
इस पुरातात्विक अनुसन्धान के प्रति अपनी जिज्ञासा और उत्खनन स्थल का निरीक्षण करने अभी तक जिला कलेक्टर श्री गौरव दयाल,सिटी मजिस्ट्रेट श्री बाल मयंक मिश्र ,उपजिलाधिकारी मछलीशहर एस मधुशालिनी , क्षेत्राधिकारी श्री आनन्द कुमार, उत्तर प्रदेश उच्च शिक्षा सेवा आयोग के अध्यक्ष डॉ.जे प्रसाद, उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्व निदेशक डॉ राकेश तिवारी , इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर .जे .एन पाल सहित इतिहास -अनुसन्धान में रूचि रखने वाले काफी लोंगो ने उत्खनित स्थल का निरीक्षण किया है. प्रदेश के संस्कृति मंत्री श्री सुभाष पाण्डेय जी जिनका निवास भी मुंगराबादशाहपुर में ही है ,इस उत्खनन को लेकर अति उत्साह में है उन्होंने तीन बार उत्खनित स्थल का निरीक्षण किया और आगे के उत्खनन के लिए एक लाख रुपये अपने पास से सहायता देने की घोषणा कर दी है।
इस सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता है कि नदियों के किनारों पर बसे प्राचीन ब्यवसायिक पडाव जल यातायात की बहुलता के चलते कालान्तर में नगर में तब्दील हो गए.निश्चित रूप से सई नदी के समीप बसे इस नगर को प्राचीन काल में अपनी मनोहारी छटा के चलते इसका फायदा मिला हो तथा तत्कालीन भारत में जल यात्रा का यह महत्त्वपूर्ण पड़ाव रहा हो जहाँ ब्यापार -विनिमय में संलग्न ब्यापारी अपना पड़ाव बनाते रहें हों और जिस कारण यह नगर एक प्रमुख ब्यापारिक प्रतिष्ठान के रूपमें स्थापित रहा होगा .इस जनपद के सुदूरवर्ती स्थलों ,जहाँ आज भी आवागमन की बहुलता नहीं हुईहै ,वहां ऐसे साक्ष्यों की उपलब्धता अवश्य हो सकती है जिससे यह निश्चित रूप से सिद्ध किया जा सके कि प्राचीन भारत में जौनपुर ब्यापार का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था इसके अलावा जनपद के पूर्वी ,पश्चमी एवं उत्तरी छोरों पर कुछ चुनिन्दा स्थल भी पुरातात्त्विक उत्खननों की प्रतीक्षा में हैं , जौनपुर के क्रमबद्ध इतिहास लेखन के लिए बगैर ठोस साक्ष्यों के ,संकेतक साक्ष्य आज भी बेमानी प्रतीत हो रहें हैं . आज तो पुरातत्व उत्खनन के लिए हमारे पास विकसित और समुन्नत तकनीक है ,यदि भविष्य में जौनपुर के चुनिन्दा स्थलों पर पुरातात्विक उत्खनन संपादित करवा दिए जाएँ तो उत्तर भारत का इतिहास ही नहीं अपितु प्राचीन भारतीय इतिहास के कई अनसुलझे सवालों का जबाब भी हमें यहीं से मिल जायेगा ।
फिलहाल बारिश के चलते उत्खनन कार्य में अवरोध हो रहा है ,अनुसन्धान की अगली गाथा फिर कभी......